Saturday, September 11, 2010

rajput

वीर श्रेष्ठ रघुनाथ सिंह मेडतिया , मारोठ-1

pawan Singh Shekhawat,
राजस्थान के नागौर पट्टी का गौड़ावाटी भू - भाग दीर्घ काल तक गौड़ क्षत्रियों के आधिपत्य में रहा | गौडों द्वारा शासित होने के कारण ही इस भाग का गौड़ावाटी नाम प्रसिद्ध हुआ | गौडों की काव्य-बद्ध वंशावली में वर्णन है कि चौहान सम्राट पृथ्वी राज तृतीय के शासन-काल में बंगाल की और से अच्छराज तथा बच्छराज नामक दो भाई राजस्थान में आये और पृथ्वीराज ने उन उभय गौड़ भ्राताओं को साम्भर के पास मारोठ नामक भू-भाग जागीर में दिया | उस समय मारोठ के समीपस्थ गांवों में दहिया शाखा के क्षत्रियों का अधिकार था | तब दहियों का मुखिया बिल्हण था | गौड़ भ्राताओं ने दहियों पर आक्रमण कर वह भू-खंड भी हस्तगत किया | गौड़ भ्राता साहसी तो थे , पर उदार भी थे | उनकी उदारता प्रशंसा कालांतर में भी राजस्थान में प्रचलित रही | कवि दुर्गादत्त बारहट ने अपनी "निशानी दातारमाला " रचना में दोनों गौडों की उदार वृति की उन्मुक्त भाव से सराहना की है -


अच्छा बच्छा गौड़ था अजमेर नगर का
दान दिए तिस अरबदा कव द्रव्य अमर का

चौहान साम्राज्य के पतन के बाद कोई सोलहवीं शताब्दी में कछवाहों की शेखावत शाखा का उदय हुआ | शेखावत शाखा के प्रवर्तक राव शेखा ने गौड़ावाटी पर ग्यारह बार आक्रमण कर उनकी शक्ति को समाप्तप्राय: कर दिया था | गौड़ावाटी के उत्तरी भाग पर अधिकार भी तब शेखावतों ने कर लिया था | गौड़ पर्याप्त शक्ति क्षीण हो गए थे | परन्तु मुग़ल सम्राट शाहजहाँ के समय में गौडों का पुन: त्वरा के साथ प्रभाव बढा | शाहजहाँ ने गौड़ गोपालदास के मरणोत्सर्ग और सेवा से प्रसन्न होकर उनको कछवाहों और राठौड़ों के समान जागीर तथा मनसब प्रदान कर उन्नत किया | शाहजहाँ के समय में में अजमेर , किशनगढ़ , रणथम्भोर और साम्भर के पास गौडावाटी आदि पर गौडों का अधिकार हो गया | पर गौडों का शाहजहाँ के समय जिस तीव्रता से प्रभाव बढा था उसी गति से शाहजहाँ के पतन के साथ ही गौडों का राजनैतिक पराभव भी हो गया |
बादशाह औरंगजेब ने गौडावाटी का परगना पुनलौता ग्राम के सांवलदास मेडतिया के छोटे पुत्र रघुनाथ सिंह को ११२ गावों के वतन के रूप में दे दिया | यधपि मुगलकाल में यह परगना अनेक व्यक्तियों को मिलता रहा , पर गौडों का इस पर अधिकार बना ही रहा | रघुनाथ सिंह दक्षिण में औरंगजेब के साथ था और उत्तराधिकार के उज्जैन और धोलपुर के युद्धों में भी उनके पक्ष में लड़ा था | यधपि उपरोक्त युद्धों में अनेक गौड़ योद्धा काम आये और राजनैतिक दृष्टि में भी उनकी स्थिति में पर्याप्त अंतर आया , परन्तु फिर भी रघनाथ सिंह मेडतिया अपनी स्वशक्ति से गौडों पर विजय पाने में समर्थ नहीं था | वह बगरू ठिकाने के चतरभुज राजवातों का भांजा था और उसका एक विवाह माधोमंडल के भारीजा संस्थान के लाड्खानोत उदय सिंह माधोदास के पुत्र कानसिंह के यहाँ हुआ था | उदय सिंह गौडों के साथ की लड़ाई में मारा गया था | उसका पुत्र कानसिंह शेखावत बड़ा पराक्रमी था | उसने रघनाथ सिंह , बगरू के राजवातों और अपने शेखावत भाइयों के साथ मिलकर संयुक्त शक्ति के साथ गौडों के मारोठ,पांचोता,पांचवा,लूणवा और मिठडी ठिकानों पर आक्रमण कर उनकी जागीरे छीन ली और शेखावतों की ख्यात के अनुसार - " सात बीसी गांव गोडाती का दबा लिया सो तो जंवाई सा रघुनाथ सिंह मेडतिया नै दे दिया , आपका बेटा पौता मै भारिजौ , गोरयां,डूंगरयां,दलेलपुरो,घाटवौ,खौरंडी,हुडील मै छै |"
इस कथन से इतना ही सिद्ध होता है कि गौडों की विजय में कानसिंह शेखावत का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा था | उसके नाम पर जीजोट के पास दो गिरीखण्डों के बीच के दर्रे का नाम कानजी का घाटा कहलाता है | इसी प्रकार चितावा आदि में राजवतों का हिस्सा रहा ओर शेष गौड़ावाटी पर मेड़तीयों का अधिकार हो गया | ये संवत १७१७ के आस-पास की घटनाएँ है | रघुनाथ सिंह ने संवत १७१९ वि. में चारणों को भूमि दी थी जिनकी नकलों से सिद्ध होता है कि १७१९ वि. में ही गौड़ावाटी पर उनका पूर्ण रूप से अधिकार हुआ होगा

बीच युद्ध से लौटे राजा को रानी की फटकार

pawan singh Shekhawat,

बात जोधपुर की चल रही है तो यहाँ के अनेक राजाओं में एक और यशस्वी राजा जसवंत सिंह जी और उनकी हाड़ी रानी जसवंत दे की भी चर्चा करली जाए | महाराज जसवन्त सिंह जी ने दिल्ली की और से बादशाह शाहजहाँ और औरंगजेब की और से कई सफल सैनिक अभियानों का नेतृत्व किया था तथा जब तक वे जीवित रहे तब तक औरंगजेब को कभी हिन्दू धर्म विरोधी कार्य नही करने दिया चाहे वह मन्दिर तोड़ना हो या हिन्दुओं पर जजिया कर लगना हो , जसवंत सिंह जी के जीते जी औरंगजेब इन कार्यों में कभी सफल नही हो सका | २८ नवम्बर १६७८ को काबुल में जसवंत सिंह के निधन का समाचार जब औरंगजेब ने सुना तब उसने कहा " आज धर्म विरोध का द्वार टूट गया है " |
ये वही जसवंत सिंह थे जिन्होंने एक वीर व निडर बालक द्वारा जोधपुर सेना के ऊँटों की व उन्हें चराने वालों की गर्दन काटने पर सजा के बदले उस वीर बालक की स्पष्टवादिता,वीरता और निडरता देख उसे सम्मान के साथ अपना अंगरक्षक बनाया और बाद में अपना सेनापति भी | यह वीर बालक कोई और नही इतिहास में वीरता के साथ स्वामिभक्ति के रूप में प्रसिद्ध वीर शिरोमणि दुर्गादास राठौड़ था |
महाराज जसवंत सिंह जिस तरह से वीर पुरूष थे ठीक उसी तरह उनकी हाड़ी रानी जो बूंदी के शासक शत्रुशाल हाड़ा की पुत्री थी भी अपनी आन-बाण की पक्की थी | १६५७ ई. में शाहजहाँ के बीमार पड़ने पर उसके पुत्रों ने दिल्ली की बादशाहत के लिए विद्रोह कर दिया अतः उनमे एक पुत्र औरंगजेब का विद्रोह दबाने हेतु शाजहाँ ने जसवंत सिंह को मुग़ल सेनापति कासिम खां सहित भेजा | उज्जेन से १५ मील दूर धनपत के मैदान में भयंकर युद्ध हुआ लेकिन धूर्त और कूटनीति में माहिर औरंगजेब की कूटनीति के चलते मुग़ल सेना के सेनापति कासिम खां सहित १५ अन्य मुग़ल अमीर भी औरंगजेब से मिल गए | अतः राजपूत सरदारों ने शाही सेना के मुस्लिम अफसरों के औरंगजेब से मिलने व मराठा सैनिको के भी भाग जाने के मध्य नजर युद्ध की भयंकरता व परिस्थितियों को देखकर ज्यादा घायल हो चुके महाराज जसवंत सिंह जी को न चाहते हुए भी जबरजस्ती घोडे पर बिठा ६०० राजपूत सैनिकों के साथ जोधपुर रवाना कर दिया और उनके स्थान पर रतलाम नरेश रतन सिंह को अपना नायक नियुक्त कर औरंगजेब के साथ युद्ध कर सभी ने वीर गति प्राप्त की |इस युद्ध में औरग्जेब की विजय हुयी |
महाराजा जसवंत सिंह जी के जोधपुर पहुँचने की ख़बर जब किलेदारों ने महारानी जसवंत दे को दे महाराज के स्वागत की तैयारियों का अनुरोध किया लेकिन महारानी ने किलेदारों को किले के दरवाजे बंद करने के आदेश दे जसवंत सिंह को कहला भेजा कि युद्ध से हारकर जीवित आए राजा के लिए किले में कोई जगह नही होती साथ अपनी सास राजमाता से कहा कि आपके पुत्र ने यदि युद्ध में लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त किया होता तो मुझे गर्व होता और में अपने आप को धन्य समझती | लेकिन आपके पुत्र ने तो पुरे राठौड़ वंश के साथ-साथ मेरे हाड़ा वंश को भी कलंकित कर दिया | आख़िर महाराजा द्वारा रानी को विश्वास दिलाने के बाद कि मै युद्ध से कायर की तरह भाग कर नही आया बल्कि मै तो सेन्य-संसाधन जुटाने आया हूँ तब रानी ने किले के दरवाजे खुलवाये | लेकिन तब भी रानी ने महाराजा को चाँदी के बर्तनों की बजाय लकड़ी के बर्तनों में खाना परोसा और महाराजा द्वारा कारण पूछने पर बताया कि कही बर्तनों के टकराने की आवाज को आप तलवारों की खनखनाहट समझ डर न जाए इसलिए आपको लकड़ी के बर्तनों में खाना परोसा गया है | रानी के आन-बान युक्त व्यंग्य बाण रूपी शब्द सुनकर महाराज को अपनी रानी पर बड़ा गर्व हुआ



राजस्थान के लोक देवता श्री पाबूजी राठौङ-भाग ३ (अन्तिम भाग)




गुजरात राज्य मे एक स्थान है अंजार वैसे तो यह स्थान अपने चाकू,तलवार,कटार आदि बनाने के लिये प्रसिद्ध है । इस स्थान का जिक्र मै यहाँ इस लिये कर रहा हूं क्यों कि देवल चारणी यही कि वासी थी । उसके पास एक काले रंग की घोडी थी । जिसका नाम केसर कालमी था । उस घोडी की प्रसिद्धि दूर दूर तक फैली हुई थी। उस घोडी को को जायल (नागौर) के जिन्द राव खींची ने डोरा बांधा था । और कहा कि यह घोडी मै लुंगा । यदि मेरी इच्छा के विरूद्ध तुम ने यह घोडी किसी और को दे दी तो मै तुम्हारी सभी गायों को ले जाउगां ।
एक रात श्री पाबूजी महाराज को स्वप्न आता है और उन्हें यह घोडी(केशर कालमी) दिखायी देती है । सुबह वो इसे लाने का विचार करते है । और अपने खास सरदार चान्दा जी, डेमा जी के साथ अंजार के लिये कूच करते है । देवल चारणी उनकी अच्छी आव भगत करती है और आने का प्रयोजन पूछती है । श्री पाबूजी महाराज देवल से केशर कालमी को मांगते है । देवल उन्हें मना कर देती है और उन्हें बताती है कि इस घोडी को जिन्द राव खींची ने डोरा बांधा है और मेरी गायो के अपहरण कि धमकी भी दी हुइ है । यह सुनकर श्री पाबूजी महाराज देवल चारणी को वचन देते है कि तुम्हारी गायों कि रक्षा कि जिम्मेदारी आज से मेरी है । जब भी तुम विपत्ति मे मुझे पुकारोगी अपने पास ही पाओगी । उनकी बात सुनकर के देवल अपनी घोडी उन्हें दे देती है ।
श्री पाबूजी महाराज के दो बहिन होती है पेमल बाइ व सोनल बाइ । जिन्द राव खींची का विवाह श्री पाबूजी महाराज कि बहिन पेमल बाइ के साथ होता है । सोनल बाइ का विवाह सिरोही के महाराज सूरा देवडा के साथ होता है । जिन्द राव
शादी के समय दहेज मे केशर कालमी कि मांग करता है । जिसे श्री पाबूजी महाराज के बडे भाइ बूढा जी द्वारा मान लिया जाता है लेकिन श्री पाबूजी महाराज घोडी देने से इंकार कर देते है इस बात पर श्री पाबूजी महाराज का अपने बड़े भाइ के साथ मनमुटाव हो जाता है ।
अमर कोट के सोढा सरदार सूरज मल जी कि पुत्री फूलवन्ती बाई का रिश्ता श्री पाबूजी महाराज के लिये आता है । जिसे श्री पाबूजी महाराज सहर्ष स्वीकार कर लेते है । तय समय पर श्री पाबूजी महाराज बारात लेकर अमरकोट के लिये प्रस्थान करते है । कहते है कि पहले ऊंट के पांच पैर होते थे इस वजह से बरात धीमे चल रही थी । जिसे देख कर श्री पाबूजी महाराज ने ऊंट के बीच वाले पैर के नीचे हथेली रख कर उसे उपर पेट कि तरफ धकेल दिया जिससे वह पेट मे घुस गया । आज भी ऊंट के पेट पैर पांचवे पैर का निशान है ।
इधर देवल चारणी कि गायो को जिन्दा राव खींची ले जाता है | देवल चारणी काफी मिन्नते करती है लेकिन वह नही मानता है , और गायो को जबरन ले जाता है | देवल चारणी एक चिडिया का रूप धारण करके अमर कोट पहुच जाती है | अमर कोट में उस वक्त श्री पाबूजी महाराज की शादी में फेरो की रस्म चल रही होती है तीन फेरे ही लिए थे की चिडिया के वेश में देवल चारणी ने वहा रोते हुए आप बीती सुनाई | उसकी आवाज सुनकर पाबूजी का खून खोल उठा और वे रस्म को बीच में ही छोड़ कर युद्ध के लिए प्रस्थान करते है | (कहते है उस दिन से राजपूतो में आधे फेरो का ही रिवाज कल पड़ा )
पाबूजी महाराज अपने जीजा जिन्दराव खिंची को ललकारते है | वहा पर भयानक युद्ध होता है | पाबूजी महाराज अपने युद्ध कोशल से जिन्दराव को परस्त कर देते है लेकिन बहिन के सुहाग को सुरक्षित रखने के लिहाज से जिन्दराव को जिन्दा छोड़ देते है |सभी गायो को लाकर वापस देवल चारणी को सोप देते है और अपनी गायो को देख लेने को कहते है | देवल चारणी कहती है की एक बछडा कम है | पाबूजी महाराज वापस जाकर उस बछड़े को भी लाकर दे देते है |
रात को अपने गाँव गुन्जवा में विश्राम करते है तभी रात को जिन्दराव खींची अपने मामा फूल दे भाटी के साथ मिल कर सोते हुओं पर हमला करता है | जिन्दराव के साथ पाबूजी महाराज का युद्ध चल रहा होता है और उनके पीछे से फूल दे भाटी वार करता है | और इस प्रकार श्री पाबूजी महाराज गायो की रक्षा करते हुए अपने प्राणों की आहुति दे देते है | पाबूजी महाराज की रानी फूलवंती जी , व बूढा जी की रानी गहलोतनी जी व अन्य राजपूत सरदारों की राणियां अपने अपने पति के साथ सती हो जाती है | कहते है की बूढाजी की रानी गहलोतनी जी गर्भ से होती है | हिन्दू शास्त्रों के अनुसार गर्भवती स्त्री सती नहीं हो सकती है | इस लिए वो अपना पेट कटार से काट कर पेट से बच्चे को निकाल कर अपनी सास को सोंप कर कहती है की यह बड़ा होकर अपने पिता व चाचा का बदला जिन्दराव से जरूर लेगा | यह कह कर वह सती हो जाती है | कालान्तर में वह बच्चा झरडा जी ( रूपनाथ जो की गुरू गोरखनाथ जी के चेले होते है ) के रूप में प्रसिद्ध होते है तथा अपनी भुवा की मदद से अपने फूफा को मार कर बदला लेते है और जंगल में तपस्या के लिए निकल जाते है |
पाठक मित्रो को बोरियत से बचाने के लिये कथा को सीमित कर दिया गया है । पिछली पोस्ट मे कही टिप्पणी करते हुये ताऊ ने पूछा कि गोगा जी अलग थे क्या ? जवाब मे अभी मै इतना ही कहूंगा कि गोगाजी चौहान वंश मे हुये थे श्री पाबूजी महाराज के बड़े भाई बूढा जी कि पुत्री केलम दे के पती थे । गोगाजी चौहान के बारे मे विस्तार से अगली पोस्ट मे लिखूगां । अब चलते चलते पाबूजी महाराज कि शादी का एक विडियो भी हो जाये



सीहा जी पर लगे मिथ्या आरोप

पिछले लेख में मोहम्मद गौरी का नाम शहाबुद्धीन लिख देने से काफी पाठको ने इस बात को समझाने में परेशानी अनुभव की | मोहम्मद गौरी का पूरा नाम मोहम्मद शहाबुद्धीन गोरी था | अब बात करते है सीहा जी की |
सीहा ,कनौज के प्रमुख राजा जयचन्द राठौड के पौत्र थे । राजस्थान मे राठौड वंश की स्थापना इनके कनौज से राजस्थान आगमन से ही हुई है । इन पर आरोप लगाया गया था कि पल्लीवाल ब्राहम्णो को धोखे से मार कर पाली पर अधिकार किया था । इस लेख मे हम इस आरोप की सच्चाई की पड़ताल करेंगे ।
कर्नल टोड के " राजस्थान के इतिहास ' में लिखा है कि:- सीहाजी ने गुहिलो को भगा कर लुनी के रेतीले भाग मे बसे खेड पर अपना राठौडी झण्डा खड़ा किया ।
उस समय पाली, और उसके आस पास का प्रदेश पल्लीवाल ब्राहम्णो के अधीन था ,और उस पाली नामक नगर के कारणः ही वे पल्लीवाल कहाते थे । परंतु आस पास की मीणा व मेर नामक जंगली लूटेरी कोमो से तंग आकर उन्होने सीहाजीसे सहायता मांगी इस पर सीहा जी ने सहायता देना स्वीकार किया और शीघ्र ही लूटेरो को दबाकर ब्राहम्णो का संकट दूर कर कर दिया ।यह देख पल्लीवालो ने, भविष्य मे होने वाले लूटेरो के उपद्रव से बचने के लिये,सीहाजी से कुछ भूमि लेकर वही बस जाने की प्रार्थना की, जिसे उन्होने भी स्वीकार कर लिया । परंतु कुछ समय बाद सीहाजी ने ,पल्लीवाल ब्राहम्णो के मुखिया को धोखे से मार कर, पाली को अपने जीते हुये प्रदेश मे मिला लिया ।
इस लेख से प्रकट होता है कि ,पल्लीवालो को सहायता देने से पूर्व ही महेवा और खेड राव सीहा जी के अधिकार मे आ चुके थे ।ऐसी हालत मे सीहाजी का उन प्रदेशों को छोड़ कर पल्लीवाल ब्राहम्णो की दी हुई साधारण सी भूमि के लिये पाली मे आकर बसना कैसे सम्भव समझा जा सकता है ? इसके अलावा उस समय उनके पास इतनी सेना भी नही थी कि, वह महेवा और खेड दोनों का प्रबन्ध करने के साथ पाली पर आक्रमण करने वाले लूटेरो पर भी आतंक बनाये रखते ।
इसके अतिरिक्त पुरानी ख्यातो मे पल्लीवाल ब्राहम्णो को केवल वैभवशाली व्यापारी ही लिखा है । पाली के शासन का उनके हाथ मे होना ,या सीहाजी का उन्हें मार कर पाली पर अधिकार करना उसमे कही भी नही लिखा है । वि.स. 1262 से वि.स. 1306 के बीच समय के कुछ लेख भीनमाल से मिले है जिससे ज्ञात होता है कि ये प्रदेश पहले सोलंकीयो के हाथ मे था बाद मे चौहाणो के हाथ मे आ गया । उस समय की भौगोलिक अव राजनीति स्थितियों को समझने पर ज्ञात होता है कि पाली भी पल्लीवाल ब्राहम्णोकेअधीन न होकर सोलंकीयो या चौहानो के अधिकार मे रहा होगा । एसी अवस्था मे निर्बल,शरणागत, और व्यापार करने वाले पल्लीवाल ब्राहम्णो को मारने की कौनसी आवश्यकता थी ? इसके अतिरिक्त टोड के लेख से यह भी सिद्ध हो जाता है कि पल्लीवाल ब्राहम्णो ने स्वय ही उन्हें बुलाया था अपने रक्षार्थ । इस हिसाब से देखा जाये तो सीहाजी वैसे ही वहा के शासक तो हो ही चुके थे । और व्यापारी पल्लीवाल ब्राहम्णो को उजाड़ कर उन्हें क्या मिलता उन्हे तो बसाने से फायदा हो रहा था क्यों कि आपने राज्य मे व्यापार का बढ़ावा ही मिल ता । इस लिये पल्लीवाल ब्राहम्णो को उजाडने मे तो उन्हीं का नुकसान था



जय चन्द राठौड़ पर लगे मिथ्या आरोप

नरेश सिह राठौड़, May 25, 2009
कुछ लोग जिनमें इतिहासकार भी शामिल है जयचंद को हिन्दू साम्राज्य का नाशक कहकर उससे घरना प्रकट करते है | और कुछ उनके पौत्र सीहा जी पर पल्लीवाल ब्राहमणों को धोखे से मार कर पाली पर अधिकार करने का कलंक लगाते है | वास्तव में देखा जाए तो इसे लोग इन कथाओं को "बाबा वाक्य प्रमाणं " समझ कर ,या ‘पृथ्वीराज रासो ' में और कर्नल टोड के " राजस्थान के इतिहास ' में लिखा देख कर ही सच्ची बात मान लेते है लेकिन वास्तविकता पर गौर नहीं करते है |

पृथ्वीराज रासो के अनुसार जयचंद ने वि.स. ११४४ में 'राजसूय यज ' और संयोगिता का स्वंयवर करने का विचार किया, तब प्रथ्वी राज ने विघ्न डालने के उद्देश्य से खोखन्द पुर में जाकर जयचंद के भाई बालुक राय को मार डाला और बाद में संयोगिता का हरण कर लिया, इससे लाचार होकर जयचंद को युद्घ करना पडा | यह युद्घ ११५१ में हुआ | उसके बाद पृथ्वीराज संयोगिता के मोह पाश में बंध गया और राज कार्य में शिथिल पड़ गया | इन्ही परिस्थितियों को कर शहाबुद्धीन ने देहली पर फिर चढाई की |पृथ्वीराज सेना लेकर मुकाबले में आ गया | इस युद्ध में शहाबुद्धीन विजयी हुआ | पृथ्वीराज पकडा गया | और गजनी पहुँचाया गया जहा पर शहाबुद्धीन और पृथ्वीराज दोनों मारे गए | कुतुबुद्धीन उनका उत्तराधिकारी बना | कुतुबुद्धीन ने आगे बाधा करा कनौज पर चढाई की जयचंद युद्ध में मारा गया | और मुसलमान विजयी हुए |

इस उपरोक्त कथा में जिस यज्ञ व स्वयंवर का वर्णन किया है उसके बारे में जयचंद के समय की किसी भी प्रशस्तियो मे नहीं है | जयचंद के समय के १४ ताम्र पात्र और २ लेख मिले है इनमें अंतिम लेख वि.स. १२४५ का है | रासो मे जिस संयोगिता के हरण की बात कही गयी है वह काल्पनिक है क्यों की इसका उल्लेख ना तो पृथ्वीराज के समय बने ‘पृथ्वीराज विजय महाकाव्य’ मे ही मिलता है और न ही वि.स. की चौदहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध मे बने ’हम्मीर महाकाव्य’ मे ही मिलता है इसी हालत मे इस कथा पर विश्वास करना अपने आप को धोखा देना है रासो मे शहाबुद्धीन के स्थान पर कुतुबुद्धीन का जयचंद पर चढाई करना लिखा है | परन्तु फारसी तवारिखो के अनुसार यह चढाई शहाबुद्धीन के मरने के बाद न होकर उसकी जिन्दगी मे हुयी थी| स्वय शहाबुद्धीन ने इसमें भाग लिया था उसकी मृत्यु वि.स. १२६२ मे हुयी थी इसके अलावा किसी भी फारसी तवारिखो मे जयचंद का शहाबुद्धीन से मिल जाना नहीं लिखा है |

यदि ‘रासो’ की सारी कथा सही भी मान ले तब भी उसमे संयोगिता हरण के कारण जयचन्द का शहाबुद्धीन को पृथ्वीराज पर आक्रमण करने का निमंत्रण देना या उससे किसी प्रकार का सम्पर्क रखना कही भी लिखा हुआ नही मिलता है । इसके विपरीत उसमे स्थान स्थान पर पृथ्वीराज को परायी कन्याओ का अपहरणकर्ता बताया गया है । जिससे उसकी उद्दण्डता ,उसकी कामासक्ति का वर्णन होने से उसकी राज्य कार्य में गफ़लत ,उसके चामुण्ड राय जैसे स्वामी भक्त सेवक को बिना विचार के कैद में डालने की कथा से उसकी गलती ,और उसके नाना के दिए राज्य में बसने वाली प्रजा के उत्पीड़न से कठोरता ही प्रकट होती है | इसी के साथ उसमे पृथ्वीराज के प्रमाद से उसके सामंतो का शहाबुद्धीन से मिल जाना भी लिखा है |

एसी हालत मे विचार शील विद्वान स्वंय सोच सकते है कि जयचन्द को हिन्दू साम्राज्य का नासक कह कर कलंकित करना कहाँ तक न्यायोचित है ।

रासो के समान ही ‘आल्हाखण्ड’मे भी संयोगिता के स्वयंवर का किस्सा दिया हुआ है । परंतु उसके रासो के बाद की रचना होने से स्पष्ट ज्ञात होता है कि उसके लेखक ने रासो का ही अनुसरण किया है इस लिये उसकी कथा पर भी विश्वास नही किया जा सकता है ।

जयचंद कनौज का अन्तिम हिन्दू प्रतापी राजा था | उसने ७०० योजन (५६०० मील) भूमि पर विजय प्राप्त की | जयचंद नेअनेक किले भी बनवाये थे इन में से एक कनौज में गंगा के तट पर ,दूसरा असीई ( जिला इटावा) में यमुना के तट पर ,तीसराकुर्रा में गंगा ले तट पर - शेष अगले भाग में |


राव विरमदेव, मेड़ता

Ratan Singh Shekhawat, Dec 20, 2008
राव विरमदेव ने 38 वर्ष की आयु में 1515 ई. में अपने पिता राव दुदा के निधन के बाद मेड़ता का शासन संभाला | व्यक्तित्व और वीरता की द्रष्टि से वे अपने पिता के ही समान थे और उन्होंने भी पिता की भांति जोधपुर राज्य से सहयोग और सामंजस्य रखा |
इसीलिए सारंग खां व मल्लू खां जैसे बलवानों को परास्त करने में विरमदेव सफल रहे | विरमदेव चित्तोड़ के महाराणा सांगा के विश्वासपात्र व्यक्ति थे | उन्होंने सांगा द्वारा गुजरात के बादशाह मुज्जफरशाह के विरुद्ध,सांगा के ईडर अभियान के अलावा मालवा और दिल्ली के सुल्तानों से सांगा के युधों में अपने शोर्य का डंका बजाया था |
लेकिन राव सुजा के पश्चात् जोधपुर की राजगद्दी के लिए जो उठापटक हुयी उसके चलते जोधपुर और मेड़ता के बीच वैमनस्य के बीज बो दिए | और दोनों राज्यों के बीच विरोध की खाई अधिक गहरी हो गई | जो सोहार्दपूर्ण सम्बन्ध मेड़ता और मेवाड़ के बीच रहे उसी प्रकार के संबंध जोधपुर के साथ भी रहते तो आज इतिहास कुछ और ही होता | 12 मई 1531 को राव गंगा के निधन के बाद राव मालदेव जोधपुर के शासक बनें जो अपने समय के राजपुताना के सबसे शक्तिशाली शासक माने जाते थे उनके मन में विरमदेव के प्रति घृणा के बीज पहले से ही मौजूद थे अतः शासक बनते ही उन्होंने मेड़ता पर आक्रमण शुरू कर दिए | पराकर्मी विरमदेव ने अजमेर में मालवा के सुल्तान के सूबेदार को भगाकर अजमेर पर भी कब्जा कर लिया जो मालदेव को सहन नहीं हुआ और उसने अपने पराकर्मी सेनापति जैता और कुंपा के नेतृत्व में विशाल सेना भेज कर मेड़ता और अजमेर पर हमला कर विरमदेव को हरा खदेड़ दिया लेकिन साहसी विरमदेव ने डीडवाना पर अधिकार जा जमाया | किन्तु मालदेव की विशाल सेना ने वहां भी विरमदेव को जा घेरा जहाँ विरमदेव ने मालदेव की सेना से युद्ध में जमकर तलवार बजायी | उनकी वीरता से प्रभावित होकर सेनापति जैता ने विरमदेव की वीरता की प्रशंसा करते हुए कहा कि आप जैसे वीर से यदि मालदेव का मेल हो जाये तो मालदेव पुरे हिन्दुस्थान पर विजय पा सकतें है | डीडवाना भी हाथ से निकलने के बाद विरमदेव अमरसर राव रायमल जी के पास आ गए जहाँ वे एक वर्ष तक रहे और आखिर वे शेरशाह सूरी के पास जा पहुंचे | मालदेव कि विरमदेव के साथ अनबन का फायदा शेरशाह ने उठाया,चूँकि मालदेव की हुमायूँ को शरण देने की कोशिश ने शेरशाह को क्रोधित कर दिया था जिसके चलते शेरशाह ने अपनी सेना मालदेव की महत्त्वाकांक्षा के मारे राव विरमदेव व बीकानेर के कल्याणमल के साथ भेजकर जोधपुर पर चढाई कर दी |
मालदेव भी अपनी सेना सहित सामना करने हेतु आ डटे लेकिन युद्ध की शुरुआत से पहले ही विरमदेव की वजह से अपने सामंतों की स्वामिभक्ति से आशंकित हो मालदेव युद्ध क्षेत्र से खिसक लिए | इस सुमैलगिरी युद्ध के नाम से प्रसिद्ध युद्ध में शेरशाह की फौज से मालदेव के सेनापति जैता और कुंपा ने भयंकर युद्ध कर भारी नुकसान पहुँचाया, विजय के बाद अपनी सेना के भारी नुकसान को देखकर शेरशाह ने कहा " मुट्ठी भर बाजरे की खातिर मै दिल्ली की सल्तनत खो बैठता | " इस युद्ध विजय के बाद शेरशाह ने विरमदेव व कल्याणमल के साथ सेना भेजकर जोधपुर पर अधिकार करने के बाद मेड़ता पर विरमदेव का पुनः अधिकार कराया | इस प्रकार छह वर्ष तक कष्ट सहन करने के बाद विरमदेव मेड़ता पर अधिकार करने में कामयाब हुए लेकिन इसके बाद वे ज्यादा दिन जीवित नहीं रह सके और फरवरी 1544 में 66 वर्ष की अवस्था में उनका स्वर्गवास हो गया



शेखावाटी का अंग्रेज विरोधी आक्रोश

Ratan Singh Shekhawat,
मराठो और पिंडरियों की लुट खसोट से तंग आकर सन १८१८ में राजस्थान के महाराजों ने अंग्रेजों के साथ संधियाँ कर ली थी जिससे इन संधियों के माध्यम से राजस्थान में अंग्रेजों के प्रवेश के साथ ही उनकी आंतरिक दखलंदाजी भी शुरू हो गई जो हमेशा स्वंतत्र रहने के आदि शेखावाटी के कतिपय शेखावत शासकों व जागीरदारों को पसंद नहीं आई |और उन्होंने अपनी अपनी क्षमतानुसार अंग्रेजों का विरोध शुरू कर दिया | इनमे श्याम सिंह बिसाऊ व ज्ञान सिंह मंडावा ने वि.स.१८६८ में अंग्रेजो के खिलाफ रणजीत सिंह (पंजाब) की सहायतार्थ अपनी सेनाये भेजी | बहल पर अंग्रेज शासन होने के बाद कान सिंह, ददरेवा के सूरजमल राठौड़ और श्याम सिंह बिसाऊ ने अंग्रेजो पर हमले कर संघर्ष जारी रखा | शेखावाटी के छोटे सामंत जिन्हें राजस्थान में अंग्रेजो का प्रवेश रास नहीं आ रहा था ने अपने आस पड़ोस अंग्रेज समर्थकों में लुट-पाट व हमले कर आतंकित कर दिया जिन्हें अंग्रेजो ने लुटेरे कह दबाने कर लिए मेजर फोरेस्टर के नेतृत्व में शेखावाटी ब्रिगेड की स्थापना की | इस ब्रिगेड ने शेखावाटी के कई सामंत क्रांतिकारियों के किले तोड़ दिए इससे पहले अंग्रेजो ने जयपुर महाराजा को इन शेखावाटी के सामन्तो की शिकायत कर उन्हें समझाने का आग्रह किया किन्तु ये सामंत जयपुर महाराजा के वश में भी नहीं थे | किले तोड़ने के बाद गुडा के क्रांतिकारी दुल्हे सिंह शेखावत का सिर काट कर मेजर फोरेस्टर ने क्रांतिकारियों को भयभीत करने लिए झुंझुनू में लटका दिया जिसे एक मीणा समुदाय का साहसी क्रांतिकारी रात्रि के समय उतार लाया | मेजर फोरेस्टर शेखावाटी के भोडकी गढ़ को तोड़ने भी सेना सहित पहुंचा लेकिन वहां मुकाबले के लिए राजपूत नारियों को हाथों में नंगी तलवारे लिए देख लौट आया |
शेखावाटी ही नहीं पुरे राजस्थान में अंग्रेजो के खिलाफ क्रांति का बीज बोने वालों में अग्रणी डुंगजी जवाहरजी (डूंगर सिंह शेखावत और जवाहर सिंह शेखावत) ने एक सशत्र क्रांति दल बनाया जिसमे सावंता मीणा व लोटिया जाट उनके प्रमुख सहयोगी थे | इस दल ने शेखावाटी ब्रिगेड पर हमला कर ऊंट,घोडे और हथियार लुट लिए साथ ही रामगढ शेखावाटी के अंग्रेज समर्थक सेठो को क्रांति के लिए धन नहीं देने की वजह से लुट लिया | शेखावाटी ब्रिगेड पर हमला और सेठो की शिकायत पर २४ फरवरी १८४६ को ससुराल में उनके साले द्वारा ही धोखे से डूंगर सिंह को अंग्रेजो ने पकड़ लिया और आगरा किले की कैद में डाल दिया | उन्हें छुडाने के लिए १ जून १८४७ को शेखावाटी के एक क्रांति दल जिसमे कुछ बीकानेर राज्य के भी कुछ क्रांतिकारी राजपूत शामिल थे ने आगरा किले में घुस कर डूंगर सिंह को जेल से छुडा लिया | इस घटना मे बख्तावर सिंह श्यामगढ,ऊजिण सिंह मींगणा,हणुवन्त सिंह मेह्डु आदि क्रान्तिकारी काम आये | इनके अलावा इस दल मे ठा,खुमाण सिंह लोढ्सर,ठा,कान सिंह मलसीसर,ठा,जोर सिह,रघुनाथ सिह भिमसर,हरि सिह बडा खारिया,लोटिया जाट,सांव्ता मीणा आदि सैकड़ौ लोग शामिल थे | डूंगर सिह को छुड़ाने के बाद इस दल ने अंग्रेजो को शिकायत करने वाले सेठो को फ़िर लुटा और शेखावाटी ब्रिगेड पर हमले तेज कर दिये | 18 जून 1848 को इस दल ने अजमेर के पास नसिराबाद स्थित अंग्रेज सेना की छावनी पर आक्र्मण कर शस्त्रो के साथ खजाना भी लूट लिया | लोक गीतो के अनुसार ये सारा धन यह दल गरीबो मे बांटता आगे बढता रहा | आखिर इस क्रान्ति दल के पिछे अंग्रेजो के साथ जयपुर,जोधपुर,बीकानेर राज्यो की सेनाए लग गई | और कई खुनी झड़पो के बाद 17 मार्च 1848 को डूंगर सिह और जवाहर सिह के पकड़े जाने के बाद यह सघंर्ष खत्म हो गया | 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम मे भी मंडावा के ठाकुर आनन्द सिह ने अपनी सेना अंग्रेजो के खिलाफ़ आलणियावास भेजी थी | तांत्या टोपे को भी सीकर आने का निमंत्रण भी आनन्द सिह जी ने ही दिया था | 1903 मे लार्ड कर्जन द्वारा आयोजित दिल्ली दरबार मे सभी राजाओ के साथ हिन्दू कुल सूर्य मेवाड़ के महाराणा का जाना भी इन क्रान्तिकारियो को अच्छा नही लग रहा था इसलिय उन्हे रोकने के लिये शेखावाटी के मलसीसर के ठाकुर भूर सिह ने ठाकुर करण सिह जोबनेर व राव गोपाल सिह खरवा के साथ मिल कर महाराणा फ़तह सिह को दिल्ली जाने से रोकने की जिम्मेदारी केशरी सिह बारहट को दी | केसरी सिह बारहट ने "चेतावनी रा चुंग्ट्या " नामक सौरठे रचे जिन्हे पढकर महाराणा अत्यधिक प्रभावित हुये और दिल्ली दरबार मे न जाने का निश्चय किया | गांधी जी की दांडी यात्रा मे भी शेखावाटी के आजादी के दीवाने सुल्तान सिह शेखावत खिरोड ने भाग लिया था | इस तरह राजस्थान मे अंग्रेजी हकूमत के खिलाफ़ लड़ने और विरोधी वातावरण तैयार करने मे शेखावाटी के सामन्तो व जागीरदारो ने भी अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई | हालांकि शेखावाटी पर सीधे तौर पर अंग्रेजो का शासन कभी नही रहा |

2 comments:

  1. bahut achchi jankari di banna, aapke ye post mene facebook me padhe the waha sayd kisi ne copy kiya tha. bahut achha likha hai aapne.

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  2. धन्यवाद
    सा
    आपका

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