महाराव शेखा जी ,परिचय एवं व्यव्क्तित्व
Pawan Singh Shekhawat,
राव शेखा का जन्म आसोज सुदी विजयादशमी सं १४९० वि. में बरवाडा व नाण के स्वामी मोकल सिंहजी कछवाहा की रानी निरबाण जी के गर्भ से हुआ १२ वर्ष की छोटी आयु में इनके पिता का स्वर्गवास होने के उपरांत राव शेखा वि. सं. १५०२ में बरवाडा व नाण के २४ गावों की जागीर के उतराधिकारी हुए |
आमेर नरेश इनके पाटवी राजा थे राव शेखा अपनी युवावस्था में ही आस पास के पड़ोसी राज्यों पर आक्रमण कर अपनी सीमा विस्तार करने में लग गए और अपने पैत्रिक राज्य आमेर के बराबर ३६० गावों पर अधिकार कर एक नए स्वतंत्र कछवाह राज्य की स्थापना की |
अपनी स्वतंत्रता के लिए राव शेखा जी को आमेर नरेश रजा चंद्रसेन जी से जो शेखा जी से अधिक शक्तिशाली थे छः लड़ाईयां लड़नी पड़ी और अंत में विजय शेखाजी की ही हुई,अन्तिम लड़ाई मै समझोता कर आमेर नरेश चंद्रसेन ने राव शेखा को स्वतंत्र शासक मान ही लिया | राव शेखा ने अमरसर नगर बसाया , शिखरगढ़ , नाण का किला,अमरगढ़,जगन्नाथ जी का मन्दिर आदि का निर्माण कराया जो आज भी उस वीर पुरूष की याद दिलाते है |
राव शेखा जहाँ वीर,साहसी व पराक्रमी थे वहीं वे धार्मिक सहिष्णुता के पुजारी थे उन्होंने १२०० पन्नी पठानों को आजीविका के लिए जागिरें व अपनी सेना मै भरती करके हिन्दूस्थान में सर्वप्रथम धर्मनिरपेक्षता का परिचय दिया | उनके राज्य में सूअर का शिकार व खाने पर पाबंदी थी तो वहीं पठानों के लिए गाय,मोर आदि मारने व खाने के लिए पाबन्दी थी |
राव शेखा दुष्टों व उदंडों के तो काल थे एक स्त्री की मान रक्षा के लिए अपने निकट सम्बन्धी गौड़ वाटी के गौड़ क्षत्रियों से उन्होंने ग्यारह लड़ाइयाँ लड़ी और पांच वर्ष के खुनी संघर्ष के बाद युद्ध भूमि में विजय के साथ ही एक वीर क्षत्रिय की भांति प्राण त्याग दिए |
राव शेखा की मृत्यु रलावता गाँव के दक्षिण में कुछ दूर पहाडी की तलहटी में अक्षय तृतीया वि.स.१५४५ में हुई जहाँ उनके स्मारक के रूप में एक छतरी बनी हुई है | जो आज भी उस महान वीर की गौरव गाथा स्मरण कराती है | राव शेखा अपने समय के प्रसिद्ध वीर.साहसी योद्धा व कुशल राजनिग्य शासक थे,युवा होने के पश्चात उनका सारा जीवन लड़ाइयाँ लड़ने में बीता |
और अंत भी युद्ध के मैदान में ही एक सच्चे वीर की भांति हुआ,अपने वंशजों के लिए विरासत में वे एक शक्तिशाली राजपूत-पठान सेना व विस्तृत स्वतंत्र राज्य छोड़ गए जिससे प्रेरणा व शक्ति ग्रहण करके उनके वीर वंशजों ने नए राज्यों की स्थापना की विजय परम्परा को अठारवीं शताब्दी तक जारी रखा,राव शेख ने अपना राज्य हांसी दादरी,भिवानी तक बढ़ा दिया था | उनके नाम पर उनके वंशज शेखावत कहलाने लगे और शेखावातो द्वारा शासित भू-भाग शेखावाटी के नाम से प्रसिद्ध हुआ,इस प्रकार सूर्यवंशी कछवाहा क्षत्रियों में एक नई शाखा "शेखावत वंश"का आविर्भाव हुआ | राव शेखा जी की मृत्यु के बाद उनके सबसे छोटे पुत्र राव रायमल जी अमरसर की राजगद्दी पर बैठे जो पिता की भाँती ही वीर योद्धा व निपूण शासक थे
रावशेखा के दादा बालाजी आमेर से अलग हुए थे | अतः अधीनता स्वरूप कर के रूप में प्रतिवर्ष आमेर को बछेरे देते थे | शेखा के समय तक यह परम्परा चल रही थी | राव शेखा ने गुलामी की श्रंखला को तोड़ना चाहा | अतः उन्होंने आमेर राजा उद्धरण जी को बछेरे देने बंद कर दिए थे पर चंद्रसेन वि.सं.१५२५ मै जब आमेर के शासक हुए तब राव शेखा के पास संदेश भेजा कि वे आमेर को कर के रूप में बछेरे क्यों नही भेजते है ? शेखा ने कहा कि मै अधीनता के प्रतीक चिन्ह को समाप्त कर देना चाहता हूँ और इसी कारण मेने बछेरे भेजने बंद कर दिए | केसरी समर में इसका सूचक दोहा इस प्रकार है –
"किये प्रधानन अरज यक , सुनहु भूप बनराज |
एक अमरसर राव बिन , सकल समापे बाज ||"
इस समाचार को जानकर चंद्र सेन को बड़ा क्रोध आया और उन्होंने राव शेखा पर चढाई करने की आज्ञा दी | इसी समय पन्नी पठानों का एक काफिला जिसमे ५०० पन्नी पठान थे |गुजरात से मुलतान जाते समय अमरसर रुका | राव शेखा ने इन पन्नी पठानों को अपना मित्र बना लिया , उनके साथ एक विशेष समझौता किया और अपनी सेना मै रखकर अपनी शक्ति बढाई | चंद्रसेन की सेना को पराजित किया और आमेर के कई घोड़ो को छीन कर ले आए |
अब चंद्र सेन स्वयं सेना लेकर आगे बढे और राव शेखा पर आक्रमण किया | नाण के पास राव शेखा ने चंद्रसेन का मुकाबला किया |राव शेखा ने अपनी सेना के तीन विभाग किए और मोर्चाबद्ध युद्ध शुरू किया | शेखा स्वयं एक विभाग के साथ रहकर कमान संभाले हुए थे | स्वयं ने चंद्रसेन से युद्ध किया | शेखा की तलवार के सम्मुख चंद्रसेन टिक भी न सके भाग खड़े हुए और आमेर चले गए | इस युद्ध में दोनों और से ६०० घुड़सवार ६०० पैदल खेत रहे |
अनुमानतः वि.सं.१५२६ में आमेर के चंद्रसेन पुनः शेखा को पराजित करने एक बड़ी सेना के साथ बरवाडा नाके पर स्तिथ धोली गाँव के पास पहुँच गए | इधर शेखाजी अपनी सशक्त सेना के साथ युद्ध करने पहुँच गए |राव शेखा ने पहुंचते ही फुर्ती के साथ चंद्रसेन की सेना पर अकस्मात आक्रमण किया | काफ़ी संघर्ष के बाद चन्द्रसेन की सेना भाग खड़ी हुई और रावशेखा की विजय हुई | यहाँ से शेखा आगे बढे ओए कुकस नदी के क्षेत्र पर अधिकार लिया |
वि.सं.१५२८ में चंद्रसेन ने राव शेखा को अधीन करने का फ़िर प्रयास किया और कुकस नदी के दक्षिण तट पर अपनी सेना को शेखा से युद्ध करने को तैनात किया |राव शेखा जी अपनी सेना सहित आ डेट | चंद्रसेन ने इस युद्ध को जीतने के लिए समस्त कछवाहों को निमंत्रित किया ऐसा माना जाता है |नारुजी पहले आमेर के पक्ष में थे परन्तु युद्ध शुरू होते ही राव शेखा के पक्ष में आ गए | यह जानकर चंद्रसेन बहुत चिंतित हुए और अपनी हार स्वीकार करते हुए संधि का प्रस्ताव रखा | नारुजी की मध्यस्ता में संधि हुई , वह इस प्रकार थी |
१.आज तक जिन ग्रामों पर राव शेखाजी का अधिकार हुआ हैं ,उन पर राव शेखा जी का अधिकार रहेगा |
२.आज से राव शेखा जी आमेर की भूमि पर आक्रमण नही करेंगे | वे आमेर राज्य को किसी प्रकार का कर नही देंगे |
३.शेखा जी अपना स्वतंत्र राज्य कायम रखेंगे | उसमे आमेराधीश कोई हस्तक्षेप नही करेगा |
इस संधि को दोनों पक्षों ने स्वीकार किया | सम्भवतः इसी समय बरवाडा पर चंद्रसेन का अधिकार हो गया | इस समय से राव शेखा जी का ३६० गांवों पर अधिकार हो चुका था
एक स्त्री की मान रक्षा के लिए शेखाजी ने झुन्थर के कोलराज गौड़ का सर काट कर अपने अमरसर के गढ़ के सदर द्वार पर टंगवा दिया,ऐसा करने का उनका उद्देश्य उदंड व आततायी लोगों में भय पैदा करना था हालांकि यह कृत्य वीर धर्म के खिलाफ था शेखा जी के उक्त कार्य की गौड़ा वाटी में जबरदस्त प्रतिक्रिया हुई और गौड़ राजपूतों ने इसे अपना जातीय अपमान समझा,अनेक गौड़ योद्धाओ ने अपने सरदार का कटा सर लाने का साहसिक प्रयत्न किया लेकिन वे सफल नही हुए और गौंडो व शेखाजी के बीच इसी बात पर ५ साल तक खूनी संघर्ष चलता रहा आख़िर जातीय अपमान से क्षुब्ध गौड़ राजपूतों ने अपनी समस्त शक्ति इक्कट्ठी कर घाटवा नामक स्थान पर युद्ध के लिए राव शेखा जी को सीधे शब्दों में रण निमंत्रण भेजा
गौड़ बुलावे घाटवे,चढ़ आवो शेखा |
लस्कर थारा मारणा,देखण का अभलेखा ||
रण निमंत्रण पाकर शेखा जी जेसा वीर चुप केसे रह सकता था और बिखरी सेना को एकत्रित करने की प्रतीक्षा किए बिना ही शेखा जी अपनी थोडी सी सेना के साथ घाटवा पर चढाई के लिए चल दिए और जीणमाता के ओरण में अपने युद्ध सञ्चालन का केन्द्र बना घाटवा की और बढे ,घाटवा सेव कुछ दूर खुटिया तालाब (खोरंडी के पास )शेखा जी का गौडों से सामना हुवा ,मारोठ के राव रिडमल जी ने गौडों का नेत्रत्व करते हुए शेखा जी पर तीरों की वर्षा कर भयंकर युद्ध किया उनके तीन घटक तीर राव शेखा जी के लगे व शेखा जी के हाथों उनका घोड़ा मारा गया ,इस युद्ध में शेखा जी के ज्येष्ठ पुत्र दुर्गा जी कोलराज के पुत्र मूलराज गौड़ के हाथों मारे गए और इसके तुंरत बाद मूलराज शेखा जी के एक ही प्रहार से मारा गया | घोड़ा बदल कर रिडमल जी पुनः राव शेखा जी के समक्ष युद्ध के लिए खड़े हो गए ,गौड़ वीरों में जोश की कोई कमी नही थी लेकिन उनके नामी सरदारों व वीरों के मारे जाने से सूर्यास्त से पहले ही उनके पैर उखड़ गए और वे घाटवा के तरफ भागे जो उनकी रणनीति का हिस्सा था वे घाटवा में मोर्चा बाँध कर लड़ना चाहते थे ,लेकिन उनसे पहले शेखा जी पुत्र पूरण जी कुछ सैनिकों के साथ घाटवा पर कब्जा कर चुके थे |
खुटिया तालाब के युद्ध से भाग कर घाटवा में मोर्चा लेने वाले गौडों ने जब घाटवा के पास पहुँच कर घाटवा से धुंवा उठता देखा तो उनके हौसले पस्त हो गए और वे घाटवा के दक्षिण में स्थित पहाडों में भाग कर छिप गए शेखा जी के पुत्र पूरण जी घाटवा में हुए युद्ध के दौरान अधिक घायल होने के कारण वीर गति को प्राप्त हो गए | घायल शेखा जी ने शत्रु से घिरे पहाडों के बीच रात्रि विश्राम लेना बुधिसम्मत नही समझ अपने जीणमाता के ओरण में स्तिथ सैनिक शिविर में लोट आए इसी समय उनके छोटे पुत्र रायमल जी भी नए सेन्यबल के साथ जीणमाता स्थित सेन्य शिविर में पहुँच चुके थे ,गौड़ शेखा जी की थकी सेना पर रात्रि आक्रमण के बारे में सोच रहे थे लेकिन नए सेन्य बल के साथ रायमल जी पहुँचने की खबर के बाद वे हमला करने का साहस नही जुटा सके |
युद्ध में लगे घावों से घायल शेखा जी को अपनी मर्त्यु का आभास हो चुका था सो अपने छोटे पुत्र रायमल जी को अपनी ढाल व तलवार सोंप कर उन्होंने अपने उपस्थित राजपूत व पठान सरदारों के सामने रायमल जी को अपना उतराधिकारी घोषित कर अपनी कमर खोली ,और उसी क्षण घावों से क्षत विक्षत उस सिंह पुरूष ने नर देह त्याग वीरों के धाम स्वर्गलोक को प्रयाण किया ,जीणमाता के पास रलावता गावं से दक्षिण में आधा मील दूर उनका दाह संस्कार किया गया जहाँ उनके स्मारक के रूप में खड़ी छतरी उनकी गर्वीली कहानी की याद दिलाती है |
घाटवा का युद्ध सं.१५४५ बैशाख शुक्ला त्रतीय के दिन लड़ा गया था और उसी दिन विजय के बाद शेखा जी वीर गति को प्राप्त हुए | शेखा जी की म्रत्यु का संयुक्त कछवाह शक्ति द्वारा बदला लेने के डर से मारोठ के राव रिडमल जी गोड़ ने रायमल जी के साथ अपनी पुत्री का विवाह कर और 51 गावं झुन्थर सहित रायमल जी को देकर पिछले पॉँच साल से हो रहे खुनी संघर्ष को रिश्तेदारी में बदल कर विवाद समाप्त किया |
शेखावत
Pawan Singh Shekhawat,
शेखावत सूर्यवंशी कछवाह क्षत्रिय वंश की एक शाखा है देशी राज्यों के भारतीय संघ में विलय से पूर्व मनोहरपुर,शाहपुरा, खंडेला,सीकर, खेतडी,बिसाऊ,सुरजगढ़,नवलगढ़, मंडावा,मुकन्दगढ़, दांता,खुड,खाचरियाबास,दूंद्लोद,अलसीसर,मलसिसर,रानोली आदि प्रभाव शाली ठिकाने शेखावतों के अधिकार में थे जो शेखावाटी नाम से प्रशिध है वर्तमान में शेखावाटी की भौगोलिक सीमाएं सीकर और झुंझुनू दो जिलों तक ही सीमित है भगवान राम के पुत्र कुश के वंशज कछवाह कहलाये महाराजा कुश के वंशजों की एक शाखा अयोध्या से चल कर साकेत आयी, साकेत से रोहतास गढ़ और रोहताश से मध्य प्रदेश के उतरी भाग में निषद देश की राजधानी पदमावती आये रोहतास गढ़ का एक राजकुमार तोरनमार मध्य प्रदेश आकर वाहन के राजा गौपाल का सेनापति बना और उसने नागवंशी राजा देवनाग को पराजित कर राज्य पर अधिकार कर लिया और सिहोनियाँ को अपनी राजधानी बनाया कछवाहों के इसी वंश में सुरजपाल नाम का एक राजा हुवा जिसने ग्वालपाल नामक एक महात्मा के आदेश पर उन्ही नाम पर गोपाचल पर्वत पर ग्वालियर दुर्ग की नीवं डाली महात्मा ने राजा को वरदान दिया था कि जब तक तेरे वंशज अपने नाम के आगे पाल शब्द लगाते रहेंगे यहाँ से उनका राज्य नष्ट नहीं होगा सुरजपाल से 84 पीढ़ी बाद राजा नल हुवा जिसने नलपुर नामक नगर बसाया और नरवर के प्रशिध दुर्ग का निर्माण कराया नरवर में नल का पुत्र ढोला (सल्ह्कुमार) हुवा जो राजस्थान में प्रचलित ढोला मारू के प्रेमाख्यान का प्रशिध नायक है उसका विवाह पुन्गल कि राजकुमारी मार्वणी के साथ हुवा था, ढोला के पुत्र लक्ष्मण हुवा, लक्ष्मण का पुत्र भानु और भानु के परमप्रतापी महाराजाधिराज बज्र्दामा हुवा जिसने खोई हुई कछवाह राज्यलक्ष्मी का पुनः उद्धारकर ग्वालियर दुर्ग प्रतिहारों से पुनः जित लिया बज्र्दामा के पुत्र मंगल राज हुवा जिसने पंजाब के मैदान में महमूद गजनवी के विरुद्ध उतरी भारत के राजाओं के संघ के साथ युद्ध कर अपनी वीरता प्रदर्शित की थी मंगल राज दो पुत्र किर्तिराज व सुमित्र हुए,किर्तिराज को ग्वालियर व सुमित्र को नरवर का राज्य मिला सुमित्र से कुछ पीढ़ी बाद सोढ्देव का पुत्र दुल्हेराय हुवा जिनका विवाह dhundhad के मौरां के चौहान राजा की पुत्री से हुवा था
दौसा पर अधिकार करने के बाद दुल्हेराय ने मांची,bhandarej खोह और झोट्वाडा पर विजय पाकर सर्वप्रथम इस प्रदेश में कछवाह राज्य की नीवं डाली मांची में इन्होने अपनी कुलदेवी जमवाय माता का मंदिर बनवाया वि.सं. 1093 में दुल्हेराय का देहांत हुवा दुल्हेराय के पुत्र काकिलदेव पिता के उतराधिकारी हुए जिन्होंने आमेर के सुसावत जाति के मीणों का पराभव कर आमेर जीत लिया और अपनी राजधानी मांची से आमेर ले आये काकिलदेव के बाद हणुदेव व जान्हड़देव आमेर के राजा बने जान्हड़देव के पुत्र पजवनराय हुए जो महँ योधा व सम्राट प्रथ्वीराज के सम्बन्धी व सेनापति थे संयोगिता हरण के समय प्रथ्विराज का पीछा करती कन्नोज की विशाल सेना को रोकते हुए पज्वन राय जी ने वीर गति प्राप्त की थी आमेर नरेश पज्वन राय जी के बाद लगभग दो सो वर्षों बाद उनके वंशजों में वि.सं. 1423 में राजा उदयकरण आमेर के राजा बने,राजा उदयकरण के पुत्रो से कछवाहों की शेखावत, नरुका व राजावत नामक शाखाओं का निकास हुवा उदयकरण जी के तीसरे पुत्र बालाजी जिन्हें बरवाडा की 12 गावों की जागीर मिली शेखावतों के आदि पुरुष थे बालाजी के पुत्र मोकलजी हुए और मोकलजी के पुत्र महान योधा शेखावाटी व शेखावत वंश के प्रवर्तक महाराव शेखाजी का जनम वि.सं. 1490 में हुवा वि. सं. 1502 में मोकलजी के निधन के बाद राव शेखाजी बरवाडा व नान के 24 गावों के स्वामी बने राव शेखाजी ने अपने साहस वीरता व सेनिक संगठन से अपने आस पास के गावों पर धावे मारकर अपने छोटे से राज्य को 360 गावों के राज्य में बदल दिया राव शेखाजी ने नान के पास अमरसर बसा कर उसे अपनी राजधानी बनाया और शिखर गढ़ का निर्माण किया राव शेखाजी के वंशज उनके नाम पर शेखावत कहलाये जिनमे अनेकानेक वीर योधा,कला प्रेमी व स्वतंत्रता सेनानी हुए शेखावत वंश जहाँ राजा रायसल जी,राव शिव सिंह जी, शार्दुल सिंह जी, भोजराज जी,सुजान सिंह आदि वीरों ने स्वतंत्र शेखावत राज्यों की स्थापना की वहीं बठोथ, पटोदा के ठाकुर डूंगर सिंह, जवाहर सिंह शेखावत ने भारतीय स्वतंत्रता के लिए अंग्रेजों के खिलाफ सशस्त्र संघर्ष चालू कर शेखावाटी में आजादी की लड़ाई का बिगुल बजा दिया था शेखावत वंश के ही श्री भैरों सिंह जी भारत के उप राष्ट्रपति बने
राजा रायसल दरबारी, खंडेला
Ratan Singh Shekhawat, Jul 14, 2008
रायसल अमरसर के शासक राव सुजाजी के द्वितीय पुत्र थे | उनका जन्म राठोड रानी रतन कुंवरी के गर्भ से हुआ था |
वर्त्तमान शेखावाटी में शेखावत राज्य की नीव इन्ही रायसलजी अपनी लाम्या की छोटी सी गागरी को खंडेला व रेवासा के विस्तृत राज्य में बदल कर डाली थी | पिता की मोत के बाद बटवारे में इन्हें जागीर में एक लाम्या गावं तथा २५ अश्व मिले लेकिन अपने बुद्धिमान मंत्री देविदास, जिनकी राजनीति प्रसिद्ध है | के सहयोग व प्रदर्शन से ये खंडेला व रेवासा के शासक बने | वी. स. १६२९ में गुजरात की चढाई के समय व इब्राहीम मिर्जा से सर्नाल के युद्ध में आगे बढ़कर बादशाह अकबर की प्राण रक्षा कर विश्वास योग्य बन गए |
नागोर, जुनागड़,पाटन,भटनेर आदि स्थानों पर इन्होने विजय हासिल की | बाद्साही महल का प्रबंद उनकी सम्मति से चलाया जाता था | आपने पूर्वजों के राज्य अमरसर के बराबर एक दुसरे राज्य के मुक्त शासक अपनी योग्यता, वीरता व देविदास मंत्री के उचित मार्ग दर्शन से बन बेठे | खेराबाद व पाटन के युधों में छायाँ के भांति अकबर का साथ देकर उन्होने अपनी वीरता व शोर्य प्रदर्शित किया | रायसल ने अपनी जीवन काल में ५२ यूधों में विजय हासिल की |
शहजादा सलीम को बादशाह बनाए वाले उमरओंमें में रायसल प्रमुख थे | जहाँगीर के राज्य काल तक वे तीन हजारी मंसबदारो की उच्च श्रेणी में पहुँच गए | रायसल अपने जीवन काल के अन्तिम दिनों में दक्षिण में शाही सेवा में नियत रहे व वहीं व्रधावस्था में उनका स्वर्गवास हो गया |राजा रायसल जैसे वीर योधा व साहसी थे ,वैसे ही दानी भी थे | भूमि दान देने में तो उस समय रायासला जी अद्वितीय थे,
रायसल जी के १२ पुत्रों में से खंडेला की राजगद्दी पर उनके सबसे कनिस्ट पुत्र गिरधर जी, रायसलजी की अन्तिम इच्छा अनुसार बेठे | इनके वंशजों में द्वारकादास, शार्दुल सिंह जी ,शिव सिंहजी ,राव तिरमलजी आदि वीर शासक हुए
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