Tuesday, September 21, 2010

kavita

हठीलो राजस्थान-13

Ratan Singh Shekhawat, Sep 21, 2010

रगत बहायौ रोसतां,
रंगी धर, फण सेस |
दिल्ली-जड़ ढिल्ली करी,
मारू मुरधर देस ||७६||


मरुधर देश राजस्थान ने जब क्रोध किया ,तो रक्त बह उठा जिसने शेषनाग के फण पर टिकी धरती रंग गई और दिल्ली की जड़े ढीली हो गई | अर्थात दिल्ली के शासकों को भी विचलित कर दिया |


सूरां सतियाँ सेहरो,
सेखा धरती सान |
तो माटी में निपजै,
बढ़ बढ़ नर बलवान ||७७||


यह शान वाली शेखावाटी की धरा वीरों सतियों का सेहरा है | इस धरती पर एक से एक महान वीर पैदा होते है |


धरती आ ढुंढ़ाड़ री,
दिल्ली हन्दी ढाल |
भुजबल इण रै आसरै,
नित नित देस निहाल ||७८||


ढुंढ़ाड़ (जयपुर,आमेर राज्य) की यह धरती सदा दिल्ली की रक्षक रही है | इसके बल के भरोसे ही देश हमेशा कृतार्थ व सुरक्षा के प्रति निश्चिन्त रहा है |


धरती आ जैसाण री,
बरती कदै न और |
पाणी जठे पातळ में,
नारी नैणा कौर ||७९||


जैसलमेर की वीर भोग्या वसुंधरा को कभी भी कोई आक्रान्ता अधिकृत नहीं कर सका | इस क्षेत्र की विशेषता है कि यहाँ पर पानी या तो पाताल में है या नारी के नेत्रों में |


सूर,धनी, चंगों मनां,
व्हालो, नेह विसेस |
देस विदेसां जाणसी,
जांगल देस हमेस ||८०||


जहाँ शूरवीर,धनी व निर्दोष मन वाले तथा विशेष स्नेही लोग निवास करते है, ऐसा बीकानेर का क्षेत्र (जांगल देश) देश व विदेशों में सर्वत्र विख्यात है |


करता बांटी कायमी,
राजपूती एक सत्थ |
हाजर एक मेवाड़ जद,
बिजां लगी न हत्थ ||८१||


विधाता ने दृढ़ता और वीरता एक साथ ही बांटी थी | उस समय केवल मेवाड़ ही वहां उपस्थित था | इसलिए अन्य किसी को वीरता व दृढ़ता नहीं मिल सकी ||



मेरी शेखावाटी
शर्त जीतने हेतु उस वीर ने अपना सिर काटकर दुर्ग में फेंक दिया |
ताऊ पत्रिका

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हठीलो राजस्थान-12

Ratan Singh Shekhawat, Sep 20, 2010

डिगीयौ नह गढ़ डीग रो,
तोपां ताव पड़ंत |
कोरां खांडी नीं हुई,
गोरां डिंग गलन्त ||७०||


वीर सूरजमल का शौर्य स्मारक डीग का दुर्ग तोपों की मार से भी डिगा नहीं | यद्धपि गोरों (अंग्रेजों) की डींग(बड़ी-बड़ी बातें) नष्ट हो गयी परन्तु इस दुर्ग की कोर भी खंडित नहीं हुई |

वीर धरा रजथान री,
सूरां में सिर मोड़ |
हल्दी घाटी घाटियाँ,
गढ़ां सु गढ़ चितौड़ ||

राजस्थान की यह वीर भूमि,वीर-भूमियों में शिरोमणि है | घाटियों में हल्दी-घाटी व दुर्गों में चित्तौड़ दुर्ग श्रेष्ठ है |


हल्दी घाटी साख दे,
चेटक झाला पाण |
इण घाटी दिसै सदा,
माटी माटी राण ||72||



हल्दी घाटी आज भी चेतक व झाला मान सिंह की कर्तव्य निष्ठा की साक्षी दे रही है | इस घाटी के कण-कण में आज भी महाराणा प्रताप के दर्शन होते है |


माथा बात भारवियो,
खनवा खेत सधीर |
धार तराजू तोलियो,
भारत भाग अखीर||७३||


खानवा के रण-क्षेत्र में तलवार की तराजू पर मस्तक के बाटों से भारत का भाग्य अंत में राणा सांगा के हाथों ही तोला गया |


बोल्यो सूरी बैण यूँ,
गिरी घाट घमसाण |
मूठी खातर बाजरी,
खो देतो हिंदवाण ||७४||


शेरशाह सूरी सुमेरगिरी गांव की घाटी में युद्ध करने के बाद बोला -' मैं मुट्ठी भर बाजरे के लिए हिंदुस्तान का राज्य खो देता |' इस युद्ध में जोधपुर के सेनापति राव जैता व कुम्पा ने दस हजार राजपूत सैनिकों के साथ सूरी की अस्सी हजार सैनिको वाली सेना के चालीस हजार सैनिक काट डाले थे और सूरी पराजित होते होते बचा था इस पर उसके मुंह से उपरोक्त वचन अनायास ही निकल पड़े थे |


सुर सारा अद्रस रमै,
नर-मुनि सुरपुर काज |
पाप नसाणो पुहुमिरा,
गुरुवर पुस्कर राज ||७५||


भूमि पर सभी के पापों को नष्ट करने वाला तीर्थराज पुष्कर सब तीर्थो में श्रेष्ठ है | यहाँ श्रेष्ठ नर,मुनि व अदृश्य रूप से देवता स्वर्ग का हित करने के लिए निवास करते है | अर्थात यहाँ स्नान करने वालों को स्वर्ग प्रदान कर ये देवता और मुनि स्वर्ग का ही हित करते है |

स्व.आयुवानसिंह शेखावत


शर्त जीतने हेतु उस वीर ने अपना सिर काटकर दुर्ग में फेंक दिया |
मेरी शेखावाटी
ताऊ पत्रिका

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हठीलो राजस्थान-11

Ratan Singh Shekhawat, Sep 17, 2010
तीनों पोल्यां देवल्यां,
देवल तीन खड़ीह |
धव पहली सुत दूसरी,
तीजी आप लड़ीह ||६४||


दुर्ग के तीनों द्वारों की देहलियों पर तीन देवलियां है | पहली पति पर,दूसरी पुत्र पर तथा तीसरी स्वयं पर है जहाँ पर वह लड़ी थी |

चारों जुग तिहूँ लोक में,
ठावी एकज ठौड़ |
सूर-सती सुमरै सदा,
तीर्थ गढ़ चितौड़ ||६५||

चारों युगों व तीनों लोकों में एक ही तीर्थ स्थान चितौड़गढ़ धन्य है,जिसका सभी वीर व सतियाँ सदा स्मरण करती है |

बल बंकौ रण बंकड़ो,
सूर-सती सिर मोड़ |
प्रण बंकौ प्रबली धरा,
चंगों गढ़ चितौड़ ||६६||

बल में बांका,रण-बांकुरा,शूरों व सतियों का सिर-मौर,वचनों की टेक रखने वाला तथा आंटीला चितौड़ दुर्ग ही सर्व-श्रेष्ठ है |

रण रमियो,रण रोति सूं,
रणमल रणथम्भोर |
राख्यो हठ हमीर रौ,
कट-कट खागां कोर ||६७||

कवि रणथम्भोर की प्रशंसा करता हुआ कहता है कि युद्ध की परम्परा को निभाने वाला वीरों का रण-स्थल यह रणथम्भोर दुर्ग अविचल है,जिसने स्वयं असिधारा से खंड खंड होकर भी वीर हमीर के हठ को अखंड रखा |

सूरो गढ़ जालौर रो,
सूरां रौ सिंणगार |
अजै सुनीजै उण धरा,
वीरम दे हूंकार ||६८||

जालौर का यह वीर दुर्ग वीरों का श्रृंगार है | उसके कण-कण में आज भी विरमदेव की हूंकार सुनाई देती है |

पच्छिम दिस पहरी सदा,
गढ़ जैसाणों सेस |
अजै रुखालो सूरतां,
अजै रुखालो देस ||६९||

जैसलमेर का यह दुर्ग सदा से ही पश्चिम दिशा का प्रहरी रहा है | यह दुर्ग आज भी वीरता की रखवाली करता हुआ देश की रक्षा कर रहा है |

स्व.आयुवानसिंह शेखावत

पहेली से परेशान राजा और बुद्धिमान ताऊ |
तीन लघु कविताएं|

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हठीलो राजस्थान-10

Ratan Singh Shekhawat, Sep 16, 2010
देणी धरती दान में,
देणी नह खग जोर |
लेणों भाला नोक सूं,
वा धर रहणी ठौर ||५८||


धरती दान में तो देनी चाहिए किन्तु तलवार के जोर इसे किसी को नहीं देनी चाहिए | भालों की नोक के बल पर जो इस धरती को लेता है,यह उसी के पास रहती है | अर्थात पृथ्वी वीर भोग्या है |

डूंगर चोटयां गढ़ घणा,
टणकां राखी टेक |
रखवाला रजथान रा,
अनमी सीस अनेक ||५९||

राजस्थान में गिरी-शिखरों पर अनेक गढ़ बने हुए है,जिनकी शूरवीरों ने रक्षा की | राजस्थान में कभी नहीं झुकने वाले ऐसे अनेक रक्षकों के मस्तक आज भी गौरव से उन गढ़ों से भी अधिक ऊँचे दिखाई देते है |

जस चमकाव जगत में ,
आप दुरग इतिहास |
जडिया इण विध भाकरां,
तारां जिम आकाश ||६०||

अपनी शौर्य गाथाओं से जो जगत में अपने सुयश का प्रकाश फैलाते है,ऐसे अनेक दुर्ग,पहाड़ों पर ऐसे शोभायमान हो रहे है जैसे आकाश में तारे |

वो गढ़ नीचो किम झुकै,
ऊँचो जस-गिर वास |
हर झाटे जौहर जठै,
हर भाटे इतिहास ||६१||

वह गढ़ भला नीचे कैसे झुक सकता है,जिसका निवास सुयश के ऊँचे शिखर पर हो ,जिसके हर द्वार पर जौहर की ज्वाला जगी हो तथा जिसके हर पत्थर पर इतिहास अंकित हो |

ऊपर गढ़ में हूँ गयो,
नम नम नायो माथ |
जठै बळी इक भामणी,
दो टाबरियां साथ ||६२||

मैं पर्वत पर स्थित उस गढ़ में गया तथा श्रद्धा से झुक कर वहां बारम्बार नमन किया ,जहाँ एक वीरांगना ने अपने दो अबोध बालकों के साथ अग्नि स्नान (जौहर) किया था |

वो गढ़ दिसै बांकड़ो ,
पोल्याँ जिण रे सात |
सातूं पोल्याँ देवल्यां,
सातां मंडिया हाथ ||६३||

वह गढ़ निश्चय ही बांका है,जिसके सात दरवाजे है और सातों ही दरवाजों पर देवलियां तथा हथेलियों के चिन्ह अंकित है | अर्थात जहाँ सातों ही दरवाजों पर वीर जुझार हुए है व सातों दरवाजों पर वीरांगनाए सतियाँ हुई है |


राजा मानसिंह आमेर |
तीन लघु कविताएं

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हठीलो राजस्थान-9

Ratan Singh Shekhawat, Sep 12, 2010
धुण हिड़दै इक सांभली,
भणतां खुद भगवान |
राग सदा सत वाहिनी,
संदेसो सत -ग्यान ||५२||


हे सखी ! भगवान का भजन करते करते मुझे हृदय में स्वयं भगवान की एक धुन सुनाई देती है | उस ध्वनि से मेरे हृदय में,सत्य के कम्पन से उत्पन्न हुई एक अनुपम राग,अनुभव होती है व सत्य-ज्ञान का संदेश कानों में सुनाई देता है |

माई मां, निज मात रो,
जाणे भेद जहाण |
निज धरमा मरणो भलो ,
पर धरमां नित हांण ||५३||

सौतेली मां व अपनी जन्म दात्री मां में कितना अंतर होता है -इसे सारा संसार जानता है | ठीक एसा ही भेद स्व-धर्म और पर-धर्म में होता है | स्वधर्म के लिए मरना सदा ही श्रेयष्कर है, जबकि परधर्म सदा हानिकारक होता है |

सींचै रुधिर सजागणो,
सिर सूंपै मम सैण |
उण घर रही ज आज लग,
बोले आ धर बैण ||५४||

यह धरती कहती है कि जो जागृत रहकर मुझे रक्त से सींचते है और मेरे इंगित मात्र पर अपना सिर समर्पित कर देते है, उसी घर में मैं आज तक रही हूँ | अर्थात अपना सर्वस्व बलिदान करने को तत्पर रहने वाले वीरों के ही अधिकार में मैं रही हूँ |

रगतां न्हाती नित रहै,
साजै नित सिंणगार |
परणी सूं धरणी प्रबल,
नखराली आ नार ||५५||

यह धरती प्रतिदिन रक्त से स्नान करती है और प्रतिदिन नविन श्रंगार करती है | इस प्रकार यह धरती पत्नी से भी ज्यादा श्रंगार प्रिय व प्रबल है ||

इस माथै सती अमर,
सतियाँ में सिरताज |
बल परणी,धरणी बली,
एकला दिसै आज ||५६||

इस पृथ्वी पर सती अमर है | ऐसी सतियाँ में बल के साथ विवाह होने के कारण बलवती हुई यह धरती आज महान दिखती है |

उबड़ खाबड़ अटपटी,
उपजै थोड़ी आय |
मोल मुलायाँ नह मिलै,
सिर साटे मिल जाय ||५७||

उबड़-खाबड़,बेढंगी व कम उपजाऊ होते हुए भी यह धरती किसी मोल पर नहीं मिल सकती | परन्तु जो इसके अपने मस्तक का दान करते है उसको यह धरती अवश्य मिल जाती है | अर्थात राजस्थान की यह उबड़-खाबड़ अनुपजाऊ भूमि किसी मुद्रा से नहीं मिलती इसे पाने के लिए तो सिर कटवाने पड़ते है |

स्व.आयुवानसिंह शेखावत,हुडील


शर्त जीतने हेतु उस वीर ने अपना सिर काटकर दुर्ग में फेंक दिया |
ताऊ पहेली - 91 (Bhoram Dev Temple-Chattisgarh)
बहुत काम की है ये रेगिस्तानी छिपकली -गोह
एसिडिटी और मोटापे से कैसे बचे ?

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हठीलो राजस्थान-8

Ratan Singh Shekhawat,
नैणा नाथ न निरखियौ,
परणी खांडै साथ |
बलती झाला वा रमी ,
रगड़े हन्दी रात ||४६||


उस वीरांगना ने अपनी आँखों से पति के कभी दर्शन नहीं किये ,क्योंकि विवाह के अवसर पर उसका पति युद्ध-क्षेत्र में चला गया था ,अत: पति की तलवार के साथ ही उसका विवाह हुआ था | युद्ध क्षेत्र में पति की वीर-गति का समाचार आने पर वही पत्नी,जिसके हाथों से हल्दी का रंग भी नहीं मिटा था ,अपने आप को अग्नि के समर्पित कर सती हो जाती है |

संग बल्तां लाड़ी बणे,
मांगल राग नकीब |
रण ठाडो लाडो सजै,
इण घर रीत अजीब ||४७||

चिता पर अपने वीर पति के शव के साथ सहगमन करते समय यहाँ की महिलाऐं दुल्हन का वेश धारण करती है व वीर युद्ध के लिए प्रस्थान हेतु दुल्हे का सा केसरिया वेश धारण करते है | इन दोनों अवसरों पर ही मंगल राग वाध्यों द्वारा बजाई जाती है | इस वीर भूमि का यही रिवाज है |

घर व्हाली धण सूं घणी,
धर चूमै पड़ खेत |
रगतां रंगे ओढ़णी,
रगतां बाँदै रेत ||४८||

वीरों की धरती अपनी पत्नी से भी अधिक प्यारी है | इसीलिए धराशायी होने पर वे धरती को ही चूमते है तथा अपने रक्त से उसकी मिटटी रूपी चुन्दडी को रंगते है व अपने रक्त रंजित शरीर के साथ मिट्टी को लपेट कर स्वर्ग में साथ ले जाते है |

भड पडियो रण-खेत में,
संचै पूँजी साथ |
राज सांधे निज रगत सूं,
पिण्ड- दान निज हाथ ||49||

वीर-योद्धा रण-क्षेत्र में धराशायी हो गया,किन्तु सत्य की संचित सम्पत्ति फिर भी उसके साथ है | इसीलिए किसी दुसरे को उसका पिंडदान कराने की आवश्यकता नहीं है | वह स्वयम ही अपने रक्त से भीगी हुई मिट्टी के पिण्ड बनाकर अपने ही हाथ से अपने लिए पिंडदान करता है |
(इतिहास में खंडेला के राजा केसरीसिंह द्वारा रण-भूमि में अपने रक्त से अपना पिंडदान करने का उदहारण मौजूद है राजा केसरीसिंह पर ज्यादा जानकारी जल्द ज्ञान दर्पण पर प्रस्तुत की जाएगी)


पग-पग तीरथ इण धरा ,
पग- पग संत समाध |
पग- पग देवल देहरा ,
रमता जोगी साध ||५०||

इस धरती पर स्थान-स्थान पर तीर्थ है,स्थान -स्थान पर संत-महात्माओं की समाधियाँ है ,स्थान-स्थान पर देवल और देवालय है तथा स्थान-स्थान पर यहाँ योगी और साधू महात्मा विचरण करते है |

कर भालो,करवाल कटि,
अदृस हय असवार |
इण धरती रै उपरै,
लड़ता नित जुंझार ||५१||

हाथ में भाला और कमर में तलवार बाँध कर तथा अश्व पर सवार होकर अदृश्य जुंझार इस धरती पर हमेशा लड़ते थे (युद्धरत रहते थे)

स्व.आयुवानसिंह शेखावत


शर्त जीतने हेतु उस वीर ने अपना सिर काटकर दुर्ग में फेंक दिया
ब्लोगिंग के दुश्मन चार इनसे बचना मुश्किल यार
ताऊ डाट इन: ताऊ पहेली - 91

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हठीलो राजस्थान -7

Ratan Singh Shekhawat, Sep 11, 2010
बौले सुरपत बैण यूँ ,
सुरपुर राखण सान |
सुरग बसाऊं आज सूं,
नान्हों सो रजथान ||४०||


सुर-पति इंद्र कहता है कि स्वर्ग की शान रखने के लिए आज से मैं यहाँ भी एक छोटा सा राजस्थान बसाऊंगा | (ताकि लोग स्वर्ग को भी वीर भूमि समझे )

दो दो मेला भरे,
पूजै दो दो ठौड़ |
सिर कटियो जिण ठौड़ पर ,
धड़ जुंझी जिण ठौड़ || ४१||

एक ही वीर की स्मृति में दो दो स्थानों पर मेले लगते है और दो स्थानों पर उनकी पूजा होती है | एक स्थान वह है ,जहाँ युद्ध में उस वीर का सिर कट कर भूमि पर गिरा तथा दूसरा स्थान वह है जहाँ सिर कटने के उपरांत उसकी धड़ (शरीर) लडती (जूझती)हुई धराशायी हुई | क्योंकि सिर कटने के बाद भी योद्धा का धड़ युद्ध करता हुआ कई मीलों तक आगे निकल जाता था |

मरत घुरावै ढोलडा,
गावै मंगल गीत |
अमलां महफल ओपणी,
इण धरती आ रीत ||४२||

यहाँ मरण को भी पर्व मानते हुए मृत्यु पर ढोल बजवाये जाते है एवं मंगल गीत गवाए जाते है | अमल-पान की महफ़िल होती है | इस वीर-भूमि की यही रीत है |

उण घर सुणिया गीतडा,
इण घर ढोल नगार |
उण घर परण त्युहार हो ,
इण घर मरण त्युंहार ||४३||

विवाह के उपलक्ष्य में कन्या पक्ष के यहाँ मंगल गीत गाए जा रहे थे ,उसी समय युद्ध की सूचना मिलने पर वर के घर पर युद्ध के ढोल नगारे आदि रण-वाध्य बजने लगे | उधर परण-त्योंहार मनाया जा रहा था तो इधर मरण-त्योंहार की तैयारियां हो रही थी |

देवलियां पग पग खड़ी,
पग पग देव निवास |
भूलोड़ा इतिहास रौ,
गावै नित इतिहास ||४४||

राजस्थान में स्थान स्थान पर देवलियों के रूप में प्रस्तर के वीर स्मारक खड़े है और स्थान स्थान पर ही वीरों के देवालय है जो हमारे विस्मृत इतिहास का नित्य इतिहास गान करते है अर्थात विस्मृत इतिहास की स्मृति कराते है |

कुवांरी काठां चढ़े,
जुंझे सिर बिण जंग |
रीठ-पीठ देवै नहीं ,
इण धरती धण रंग ||४५||

किसी वीर को पति बनाने का संकल्प धारण कर लेने के बाद यदि उस वीर की युद्ध में मृत्यु हो जाय तो संकल्प करने वाली वह कुंवारी ही सती हो जाया करती थी तथा यहाँ के शूरवीर सिर कटने के बाद उपरांत भी युद्ध करते थे व युद्ध भूमि में पीठ नहीं दिखाते | ऐसी यह वीर-भूमि बारम्बार धन्य है |

आयुवानसिंह शेखावत,हुडील


जोधपुर राजघराने में गूंजेगी शहनाइयाँ |
ताऊ डाट इन: ताऊ पहेली - 91
बाते फ्री में बात करवाने वाले जुगाड की

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हठीलो राजस्थान-6

Ratan Singh Shekhawat, Sep 2, 2010
छीन ठंडी छीन गरम है,
तुनक मिजाजी नेस |
भोली सूर सभाव री,
धरती दोस न लेस ||३४ ||


राजस्थान की भूमि क्षणभर में ठंडी व क्षण भर में गर्म हो जाती है | इसमें इस धरती का तनिक भी दोष नहीं है,और न ही यह स्थिर स्वभाव की द्योतक है बल्कि यह शूरवीर के भोले स्वभाव का प्रतीक गुण है |

निपजै नारी पद्मणी
घर घर वीरां खाण |
सारा देसां सूं सिरे ,
रेतीलो रजथान ||३५||

यहाँ घर-घर में पद्मिनी जैसी नारियां पैदा होती है व यहाँ का हर का प्रत्येक घर वीरों को उत्पन्न करने वाली खान है | इसीलिए यह राजस्थान प्रदेश सब प्रदेशों से श्रेष्ठ है |

धोला मन, धोली खगां,
धोला धोरां वान |
केव्या मुख कालो करै,
रोसंतां रजथान ||३६||

यहाँ उज्जवल मन और उज्जवल खड्ग धारण करने वाले वीर निवास करते है | यहाँ श्वेत बालू रेत के टीले भी उजले है | परन्तु राजस्थानी वीर क्रुद्ध होने पर शत्रुओं का मुंह काला कर देते है |

सूखा गिरवर, बन पवन,
सूखी सह नदियांह |
झरना झारै निस दिवस,
अरि धण री अखियांह ||३७||

इस प्रदेश के पर्वत,वन,पवन तथा समस्त नदियाँ सूखी है | किन्तु शत्रुओं की स्त्रियों की आँखों से दिन रात झरने बहते है अर्थात आंसू टपकते रहते है |

दिल कठोर कोमल बदन,
अदभुत रीत निभाय |
अरि रेलों सोखे उदर,
रेलों रुधिर बहाय ||३८||

राजस्थान की भूमि व यहाँ के वीरों का दिल कठोर व शरीर कोमल होता है | फिर भी यह अदभुत है कि अपने खून की नदी बहाकर यह दुश्मन की सेना के प्रवाह को अपने पेट में समाहित कर लेते है अर्थात नष्ट कर देते है |

सीतल गरम समीर इत,
नीचो,ऊँचो नीर |
रंगीला रजथान सूं ,
किम रुड़ो कस्मीर ? ||३९||

राजस्थान वैविध्य युक्त है | यहाँ कभी ठंडी तो कभी गर्म हवा चलती है तथा पानी भी कहीं उथला तो कहीं गहरा है | ऐसे में रंगीले (हर ऋतू में सुहावने)राजस्थान से कश्मीर (जहाँ सिर्फ शीतल पवन और भूमि की उपरी सतह पर पानी है)किस प्रकार श्रेष्ट कहा जा सकता है ?


स्व.आयुवानसिंह शेखावत

एक वीर जिसने दो बार वीर-गति प्राप्त की |
विश्व के मानचित्र पर पहचान बनाने वाला गाँव - बख्तावरपुरा

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हठीलो राजस्थान-5

Ratan Singh Shekhawat, Aug 30, 2010
मात सुणावै बालगां,
खौफ़नाक रण-गाथ |
काबुल भूली नह अजै,
ओ खांडो, ऎ हाथ ||२८||


काबुल की भूमि अभी तक यहाँ के वीरों द्वारा किये गए प्रचंड खड्ग प्रहारों को नहीं भूल सकी है | उन प्रहारों की भयोत्पादक गाथाओं को सुनाकर माताएं बालकों को आज भी डराकर सुलाती है |

संत सती अर सायबा,
जणियां दाता सूर |
जण-जण नाऩ्हां जीव आ,
नथी गमायो नूर ||२९||

इस भूमि ने सदा ही संतो,सतियों और वीर स्वामियों ,दाताओं तथा शूरवीरों को जन्म दिया है | यहाँ की वीर ललनाओं ने तुच्छ प्राणियों (कायर,कपटी और कपूतों) को जन्म देकर अपने रूप यौवन को नष्ट नहीं किया |

जाणै इटली फ़्रांस रा,
जरमन, तुरक , जपान |
रण मतवाला इण धरा,
रण बंको रजथान ||३०||

आज फ़्रांस ,जर्मनी ,तुर्की व जापान के लोग इस तथ्य से भली भांति परिचित हो चुके है कि राजस्थान में युद्ध के लिए आतुर रहने वाले प्रचंड-वीर निवास करते है व राजस्थान विकट युद्ध करने वालों की भूमि है |

रेती धरती विकट भड,
रण-टणका सदियांह |
हिम-गिर यूं साखी भरै,
सन्देसो नदियांह ||३१||

बालुका-मयी इस भूमि पर शताब्दियों से रण-भूमि में बलवान विकट योद्धा उत्पन्न होते है | इस बात की हिमालय भी साक्षी देता है और नदियाँ भी यही सन्देश गान करती है |

किम पडौस कायर बसै,
केम बसै घर आय |
पाणी,रजकण,पवन सह,
वीरा रस बरसाय ||३२||

इस धरती के पडौस में कायर पुरुष कैसे निवास कर सकते है और इस पर आकर तो वे बस ही कैसे सकते है ? क्योंकि यहाँ का पानी,मिटटी और हवा वीर रस की वर्षा करने वाले है अर्थात वीरों को उत्पन्न और पोषित करने वाले है |

लिखियो मिलसी लेख में,
विधना घर नित न्याय |
घर खेती किम नीपजै ?
रण-खेती सरसाय ||३३||

प्रराब्द में जो लिखा होता है ,वही मिलता है | विधाता के घर में सदा न्याय ही होता है यहाँ की भूमि पर खेती कैसे पनप सकती है ? क्योंकि यहाँ की वीर भूमि में तो रण-खेती है |

स्व.आयुवानसिंह शेखावत

राजऋषि ठाकुर श्री मदनसिंह जी,दांता
आइये मोबाईल द्वारा अपने पीसी या लैपटोप पर नेट चलाये

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हठीलो राजस्थान-4

Ratan Singh Shekhawat, Aug 29, 2010
रण छकियो, छकियो नहीं ,
मदिरा पान विशेष |
रण-मद छकियो रीझ सूं,
रण-मतवालो देस ||२२||


रण से तृप्त होने वाला यह देश अत्यधिक मदिरा पान करने पर भी तृप्त नहीं हो सका किन्तु जब उसने उल्लासित होकर रण-रूपी मदिरा का सेवन किया ,तभी जाकर तृप्त हुआ क्योंकि यह सदैव ही रण-रूपी मदिरा से मस्त होने वाला है |

सह देसां सूरा हुआ,
लड़िया जोर हमेस |
सिर कटियाँ लड़णों सखी,
इण धर रीत विसेस ||२३||

हे सखी ! सभी देशों में शूरवीर हुए है ,जो सदैव बड़ी वीरता से लड़े है,किन्तु सिर कटने के उपरान्त भी युद्ध करना तो केवल इस देश की ही विशेष परम्परा रही है |

खाणी रोटी घास री,
पेडा गालां बास |
रगतां लिखियो अमिट नित,
इण धरती इतिहास ||२४||

घास की रोटी खाने वाले, पेडों के नीचे और् कन्दराओं मे निवास करने वाले वीरों ने सदैव ही इस धरती के इतिहास को रक्त से अमिट अक्षरों मे लिखा है |

धर कागज,खग लेखणी,
रगतां स्याही खास |
कमधां लिखियो कोड सूं,
अमिट धरा इतिहास ||२५||

धरती रुपी कागज पर तलवार रुपी लेखनी से रक्त की विषेश स्याही से कमधों (सिर कटने के बाद भी लडने वाले वीरों) ने बडे चाव से इस भूमि का अमिट इतिहास लिखा है |

धोरां घाट्यां ताल रो,
आंटीलो इतिहास |
गांव गांव थरमापली,
घर घर ल्यूनीडास ||२६||

यहां के रेतिले टीलों,यहां की घाटियों और मैदानों का बडा ही गर्व पुरित इतिहास रहा है |यहां का प्रत्येक गांव थरमापल्ली जैसी प्रचण्ड युद्ध स्थली है तथा प्रत्येक घर मे ल्यूनीडास जैसा प्रचण्ड योद्धा जन्म चुका है |

सुलग अगन सुजसां तणी,
सुलगै नित रण-आग |
सदियां सूं देखां सखी ,
सिर अनामी कर खाग ||२७||

यहां के वीरों के ह्रदय मे सदैव सुयश कमाने की अग्नि प्रज्वलित रहती है इसिलिये यहां सदा युद्धाग्नि प्रज्वलित रहती है | हे सखी ! हम तो सदियों से यही देखती आई है कि यहां के वीरों के सिर सदा अनमी (न झुकने वाले)रहे है ,तथा उनके हाथों मे खड्ग शोभित रहा है |

Sunday, September 12, 2010

poem

इतिहास याद दिलाये


इतिहास याद दिलाये मेवाड़ी जयमल पत्ता की !
मेवाड़ी जयमल पत्ता की ! जागो ! जागो !!

जली रानियाँ जौहर व्रत ले , अंगारों से खेली थी अंगारों से खेली |
शान बेचकर कायर की भांति अश्रु धारा ले ली अब अश्रु धारा ले ली ||

भूल गया क्यों भोले तलवार राणा सांगा की !
तलवार राणा सांगा की ! जागो ! जागो !!

केशरिया बन जूझ गए हमको गौरव देने , हाँ हमको गौरव देने |
रखते क्यों नहीं प्राण ह्रदय में उनकी पीडा लेने रे उनकी पीडा लेने ||

आई प्रलय की बेला , है मांग गोरा बादल की !
है मांग गोरा बादल की जागो ! जागो !!

यहाँ घास की रोटी से वैभव ने हार मानी वैभव ने हार मानी |
इस धरती से गूंज रही जीवन की अमर कहानी - जीवन की अमर कहानी ||

वह थाती न गुमाना , महान हल्दी घाटी की !
महान हल्दी घाटी की जागो ! जागो !!

चढा नहीं पूजा में तो पैरों से कुचलेंगे -हाँ पैरों से कुचलेंगे |
कल जो कुचले गए आज फिर तुमसे बदला लेंगे - वे तुमसे बदला लेंगे ||

बिता युग है कोस रहा , धिक्कार ऐसे जीने को |
धिक्कार ऐसे जीने को जागो ! जागो



धरती माता किसने रखी लाज तेरे सम्मान की


धरती माता किसने रखी लाज तेरे सम्मान की |
अलबेलों ने लिखी खड्ग से गाथाएँ बलिदान की ||
हाँ ! गाथाएँ बलिदान की ||

काबुल के तुफानो से जब जन मानस था थर्राया |
गजनी की आंधी से जाकर भीमदेव था टकराया ||
देख खानवा यहाँ चढी थी राजपूतों की त्योंरियां |
मतवालों की शमसिरों से निकली थी चिंगारियां ||
यहाँ कहानी गूंज रही सांगा के समर प्रयाण की |
अलबेलों ने लिखी खड्ग से गाथाएँ बलिदान की ||

देखो इस चितौड़ दुर्ग का हर पत्थर गौरव वाला |
यहाँ चढाई कुल देवी पर शत-शत मुंडो की माला ||
महलों में जौहर धधका हर राजपूत परवाना था |
हर-हर महादेव के नारों से अवनी अम्बर गूंजा था ||
यहाँ गाथाएँ गूंज रही कण-कण में गौरव गान की |
अलबेलों ने लिखी खड्ग से गाथाएँ बलिदान की ||

यही सीकरी यह पानीपत यही वही हल्दीघाटी |
वीर बांकुरों के शोणित से तृप्त हुई जिसकी माटी ||
हाल बता बुन्देल धरा तेरे उन वीर सपूतों का |
केशारियां कर निकल पड़े थे मान बचने माता का ||
भूल गए तो याद करो उस पृथ्वीराज महान की |
अलबेलों ने लिखी खड्ग से गाथाएँ बलिदान की ||

आन बान हित कई बाँकुरे आजीवन थे यहाँ लड़े |
यवन सैन्य के झंझावत से पर्वत बनकर यहीं अडे ||
क्षिप्रा झेलम बोल जरा क्यों लाल हुआ तेरा पानी |
महाकाल से यहाँ जूझने दुर्गा की थी भृकुटी तनी ||
तेरी ही बेदी पर माता चिता जली अरमानों की |
अलबेलों ने लिखी खड्ग से गाथाएँ बलिदान की ||

महाराणा सा सपूत पाकर धन्य हुई यह वसुंधरा |
जयमल पत्ता जैता कुम्पा झाला की यह परम्परा ||
जिन्दा है तो देख जरा जालौर और गढ़ उंटाला |
तारागढ़ और रणतभंवर में लगा शहीदों का मेला ||
आओ फिर से करें प्रतिष्ठा उस पावन प्रस्थान की |
अलबेलों ने लिखी खड्ग से गाथाएँ बलिदान की ||

तडफ रहे है अब परवाने उसी शमां पर चढ़ने को |
आग उठी है रग-रग में फिर से बदला लेने को ||
भभक रहे है अब अंगारे प्रतिहिंसा के झोंको से |
भीख मांगता महाकाल निर्वासित राजकुमारों से ||
जगो यहाँ जगदेवों की लगी है बाजी जान की |
अलबेलों ने लिखी खड्ग से गाथाएँ बलिदान की


साथी संभल-संभल कर चलना

साथी संभल-संभल कर चलना बीहड़ पंथ हमारा |
है अँधियारा पर प्राची में झांक रहा सवेरा ||
बलिवेदी का अंगारा तू जीवन ज्योति जला दे | जीवन ...
लम्बी मंजिल बढ़ता जा होनी से कदम मिला ले , होनी से ...
गौरव से जीने मरने की बढ़ने की यह परम्परा ||
साथी संभल-संभल कर चलना बीहड़ पंथ हमारा ||

साधन कम है फिर भी तुम पर आशाएं हमारी आशाएं , आशाएं ...
कर्म कठिन है कोमल काया अग्नि परीक्षा तुम्हारी , अग्नि परीक्षा ...
भुला पंथी भटक रहा तू बन जा रे ध्रुवतारा ||
साथी संभल-संभल कर चलना बीहड़ पंथ हमारा ||

यह जीवन न्योछावर करके क्या संतोष करेगा | क्या ..
जन्म जन्म का कर्जा कैसे एक जन्म में चुकेगा , एक जन्म ...
लहरों से हरो मत साथी दूर नहीं है किनारा ||
साथी संभल-संभल कर चलना बीहड़ पंथ हमारा ||

शमां जली है परवानों की आई है ऋतू मरने की , आई ...
मरने की या अरमानो की साथी पूरा करने की , साथी ...
करने की बेला में अच्छा लगता नहीं बसेरा ||
साथी संभल-संभल कर चलना बीहड़ पंथ हमारा ||

जौहर शाको की कीमत को आज चुका बलिदान से , आज ..
दोल उठेंगे दिग्गज साथी तेरे महाप्रयाण से , तेरे ............
अरमानो को बना न देना आंसुओं की धारा ||
साथी संभल-संभल कर चलना बीहड़ पंथ हमारा

~*~ जय चितोड़ ~*~


मांणक सूं मूंगी घणी जुडै़ न हीरां जोड़।
पन्नौं न पावै पांतने रज थारी चित्तौड़॥
आवै न सोनौं ऒळ म्हं हुवे न चांदी होड़।
रगत धाप मूंघी रही माटी गढ़ चित्तोड़॥
दान जगन तप तेज हूं बाजिया तीर्थ बहोड़।
तूं तीरथ तेगां तणौ बलिदानी चित्तोड़॥
बड़तां पाड़ळ पोळ में मम् झुकियौ माथोह।
चित्रांगद रा चित्रगढ़ नम् नम् करुं नमोह॥
जठै झड़या जयमल कला छतरी छतरां मोड़।
कमधज कट बणिया कमंध गढ थारै चित्तोड़॥
गढला भारत देस रा जुडै़ न थारी जोड़।
इक चित्तोड़ थां उपरां गढळा वारुं क्रोड़॥


~*~ राजपूतों से अर्ज करूँ ~*~







तन-मन से है नारा मेरा , बोलो जय भवानी |

धिक्कार है उन राजपूतों को ,खोदी जिन्होंने अपनी जवानी ||


तन-मन से है नारा मेरा , बोलो जय भवानी |

कायर नही आज हम , दुनिया को यह आज बतानी ||


हम जन रक्षक रहे सदा से , क्षात्र धर्म का यह नारा है |

दुष्टों को हम मार भगाए , यही फर्ज हमारा है ||

कठिनाइयों के बीहड़ पथो में , हमने जीवन गुजारा है |

जन हित की रक्षा खातिर , दुश्मन को ललकारा है ||

त्याग बलिदान के पुंज हम है , सबको यह बात बतानी |

तन मन से है नारा मेरा , बोलो जय माँ भवानी



वो कौम न मिटने पायेगी


वो कौम न मिटने पायेगी
ठोकर लगने पर हर बार , उठती जाएगी |

युग युग से लगे है यहाँ पर देवों के दरबार
इस आँगन में राम थे खेले , खेले कृष्ण कुमार , झूम उठे अवतार ||

गंगा को धरती पर लाने भागीरथ थे आये
ध्रुव की निष्ठा देख के भगवन पैदल दौड़े आये , साधक आते जायें ||

विपदा में जो देवों की थी अभयदायिनी त्राता ही
चंडी जिनकी कुलदेवी हो बल तो उसमे आता ही , जय दुर्गा माता की ||

बैरी से बदला लेने जो हंस हंस शीश चढाते
शीश कटे धड से अलबेले बढ़-बढ़ दांव लगाते , मरकर जीते जाते |

जिनके कुल की कुल ललनाएं कुल का मान बढाती
अपने कुल की लाज बचाने लपटों में जल जाती , यश अपयश समझाती ||

मरण को मंगलमय अवसर गिन विधि को हाथ दिखाने
कर केसरिया पिए कसूँबा जाते धूम मचाने , मौत को पाठ पढ़ाने ||

कितने मंदिर कितने तीरथ देते यही गवाही
गठजोड़ों को काट चले थे बजती रही शहनाई , सतियाँ स्वर्ग सिधाई ||

कष्टों में जिस कौम के बन्दे जंगल -जंगल छानेंगे
भोग एश्वर्य आदि की मनुहारें ना मानेंगे , घर-घर दीप जलाएंगे ||


इतिहास की चोटों का


इतिहास की चोटों का एक दाग लिए फिरते है |
सीने के घराने में इक दर्द लिए फिरते है ||

हम भूल नही सकते महमूद तेरी गजनी |
अब तक भी आंखों में वह खून लिए फिरते है ||
इतिहास की चोटों का इक दाग लिए फिरते है |||

बाबर तेरे प्याले टूटे बता कितने ?
पर सरहदी का अफ़सोस लिए फिरते है ||
इतिहास की चोटों का इक दाग लिए फिरते है |||

झाला था इक माना कुरम था इक माना |
सोने के लगे जंग पै अचरज लिए फिरते है ||
इतिहास की चोटों का इक दर्द लिए फिरते है |||

कर्जन तेरी दिल्ली में अनमी था इक राना |
सड़कों पे गिरे ताजों के रत्न चुगा फिरते है ||
इतिहास की चोटों का इक दर्द लिए फिरते है |||

आपस में लड़े भाई गैरों ने हमें कुचला |
अब मिलकर लड़ने का अरमान लिए फिरते है ||
इतिहास की चोटों का इक दाग लिए फिरते है


भारत का मान बिन्दु


भारत का मान बिन्दु ,तिरंगा यह झंडा हमारा |
मर के अमर हो जाना, पर ये झंडा ना झुकाना ||
लाखों चढ़े थे शमा पर किंतु बुझने न दी ये ज्योति |
बलिदानों की ये कथाएँ बातों में ना तुम भुलाना ||
बूंदी की शान कुम्भा ने, मेवाड़ में लड़कर बचायी |
उसने नकली किला बचाया, तुम असली निशां ना झुकाना ||
हाथी से टक्कर दिला कर,छाती से किला तुड़वाया |
वीरों की अमर कहानी, चुल्लू पानी में ना तुम डूबना ||
पच्चीस वर्ष कष्टों के,प्रताप ने वन में सहे थे |
स्वतंत्रता के दीवानों का भी यही था तराना ||
ओ भारत के वीर सपूतो,ओ राष्ट्र के तुम सितारों |
जननी की लाज कभी तुम,अपने ना हाथों लुटाना ||
अपमान औ" ठोकर की अग्नि अश्रु बूंदों से ना तुम बुझाना |
बुझाना हो तुम्हे कभी तो, खून की नदी से बुझाना


हम भूल चुके है हाँ


हम भूल चुके है हाँ
हम भूल चुके है जिस पीड़ा को उसको फ़िर उकसानी है |
केसरिया झंडा सुना रहा है हमको अमर कहानी ||
ऋषि मुनियों की जन्म भूमि यह भारत इसका नाम
देवों की अवतार भूमि यह सतियों का प्रिय धाम
दूर देश से भिक्षुक आते थे विद्या के काम
इतिहास बताते हाँ ---
इतिहास बताते भारत के वेदों की अमर कहानी |
केसरिया झंडा सुना रहा है हमको अमर कहानी ||
यवनों का अधिकार हुवा रिपुओं की सब कुछ बन आई
धर्म त्याग जो नही किया तो खाले उनकी खिचवाई
वेद जलाये देवालय तोडे मस्जिद वहां पे बनवाई
भारत का जर्रा हाँ ---
भारत का जर्रा -जर्रा कहता वीरों की नादानी |
केसरिया झंडा सुना रहा है हमको अमर कहानी ||
नादिरशाही हुक्म चला था कट गए थे सिर लाखों
देश धर्म की बलिवेदी पर शीश चढ़े थे लाखों
दिल्ली के तख्त पलटते हमने देखे थे इन आंखों
नही सुनी तो हाँ --
नही सुनी तो फ़िर सुनले हम वीरों की कुर्बानी |
केसरिया झंडा सुना रहा है हमको अमर कहानी ||
मुगलों ने जब किया धर्म के नाम अनर्थ अपार
चमक उठी लाखों बिजली सी राजपूती तलवार
और सुनो हल्दी घाटी में बही रक्त की धार
हर -हर की ध्वनी में हाँ--
हर-हर की ध्वनी में सुनते है वह हुँकार पुरानी |
केसरिया झंडा सुना रहा है हमको अमर कहानी ||

काबुल को फतह किया पर नही मस्जिद तुडवाई
अत्याचारी गौरी की भी गर्दन कहाँ कटाई
अरे विदेशी शत्रु को भी हमने माना भाई
बुझते दीप शिखा की हाँ---
बुझते दीप शिखा की हमको फ़िर से ज्योति जगानी
केसरिया झंडा सुना रहा है हमको अमर कहानी ||
याद हमें है दुर्गादास और वह सांगा रणधीर
याद हमें है सोमनाथ भी और बुंदेले वीर
याद हमें है हल्दी घाटी और हठी हमीर
याद हमें है हाँ--
याद हमें है रण में जूझी वह हाड़ी महारानी |
केसरिया झंडा सुना रहा है हमको अमर कहानी ||


राजपूत कौन

Ratan Singh Shekhawat, Aug 8, 2008
विविधायुध वान रखे नितही , रण से खुश राजपूत वही |
सब लोगन के भय टारन को ,अरी तस्कर दुष्टन मारन को |
रहना न चहे पर के वश में ,न गिरे त्रिय जीवन के रस में |
जिसके उर में शान्ति रही ,नय निति रखे राजपूत वही |
जननी भगनी सम अन्य त्रिया, गिन के न कभी व्यभिचार किया |
यदि आवत काल क्रपान गहि ,भयभीत न हो राजपूत वही |
धर्तिवान से धीर समीप रखे , निज चाकर खवासन को निरखे |
जिसने न रिपु ललकार सही , राजपूत रखे राजपूत वही |
पर कष्टं में पड़ के हरता ,निज देश सुरक्षण जो करता |
जिसने मुख से कही न नहीं ,प्रण पालत सो राजपूत वही


क्षत्रिय

Ratan Singh Shekhawat, Jul 12, 2008

क्षत्रियों की छतर छायाँ में ,क्षत्राणियों का भी नाम है |
और क्षत्रियों की छायाँ में ही ,पुरा हिंदुस्तान है |
क्षत्रिय ही सत्यवादी हे,और क्षत्रिय ही राम है |
दुनिया के लिए क्षत्रिय ही,हिंदुस्तान में घनश्याम है |
हर प्राणी के लिए रहा,शिवा का कैसा बलिदान है |
सुना नही क्या,हिंदुस्तान जानता,और सभी नौजवान है |
रजशिव ने राजपूतों पर किया अहसान है |
मांस पक्षी के लिए दिया ,क्षत्रियों ने भी दान है |
राणा ने जान देदी परहित,हर राजपूतों की शान है |
प्रथ्वी की जान लेली धोखे से,यह क्षत्रियों का अपमान है |
अंग्रेजों ने हमारे साथ,किया कितना घ्रणित कम है |
लक्ष्मी सी माता को लेली,और लेली हमारी जान है |
हिन्दुओं की लाज रखाने,हमने देदी अपनी जान है |
धन्य-धन्य सबने कही पर,आज कहीं न हमारा नाम है |
भडुओं की फिल्मों में देखो,राजपूतों का नाम कितना बदनाम है |
माँ है उनकी वैश्याऔर वो करते हीरो का कम है |
हिंदुस्तान की फिल्मों में,क्यो राजपूत ही बदनाम है |
ब्रह्मण वैश्य शुद्र तीनो ने,किया कही उपकार का काम है |
यदि किया कभी कुछ है तो,उसमे राजपूतों का पुरा योगदान है |
अमरसिंघ राठौर,महाराणा प्रताप,और राव शेखा यह क्षत्रियों के नाम है ||



झांसी की रानी लक्ष्मी बाई

Ratan Singh Shekhawat, Jun 29, 2008
सन अट्ठारह सौ पैंतीस में रानी झांसी ने था जन्म लिया
भारत की सोई जनता को उसने स्वतंत्रता पाठ पढ़ा दिया
दिखला दिया उसने फ़िरंगी को, है सिंहनी भारत की नारी
जिसे देख के वो तो दंग हुए, पर गद्दारों ने मार दिया



अकसर बालक बचपन में हैं खेलते खेल खिलौनों से
पर शुरु से ही इस कन्या ने ऐसा अपने को ढाल लिया
वो खेलती थी तलवारों से, तोड़ती नकली महलों को
और साथ में उसके नाना थे, जिनसे युद्ध का ज्ञान लिया

बचपन का नाम मनु उसका, सब कहते उसे छबीली थे
वो चिढ़ती, सब हँसते थे, यूँ यौवन देहरी को पार किया
झांसी के राजा गंगाधर से जब पाणिग्रहण संस्कार हुआ
मनु से बनी लक्ष्मी बाई, नया नाम सहर्ष स्वीकार किया

हुआ एक पुत्र, पर उसने जल्दी अपनी आँखें बन्द करीं
दामोदर राव को रानी ने पुत्र मान कर गोद लिया
थे सदा ही उसकी सेवा में सुन्दर, मुन्दर और काशी भी
जिनके हाथों की चोटों ने, शत्रु को पानी पिला दिया

कुछ समय बाद राजा ने भी इस जग से नाता तोड़ा
फिर रानी गद्दी पर बैठी, सत्ता को अपने हाथ लिया
सागर सिंह डाकू को उसने और मुन्दर ने यूँ जा पकड़ा
वो वीर थी जैसे दुर्गा हो, सब ने यह लोहा मान लिया

अब अंग्रेज़ों ने सोचा झांसी बिल्कुल ही लावारिस है
उसे घेर हथियाने का कपट, उन्होंने मन में धार लिया
बढ़ा रोज़ सोच यह आगे, झांसी बस अब अपने हाथ में है
पर धन्य वो रानी जिसने युद्ध चुनौती को स्वीकार किया

रानी कूदी रणभूमी में, हज़ारों अंग्रेज़ों के आगे
दो दो तलवारें हाथ में थीं, मुँह से घोड़े को थाम लिया
बिछ जाती दुशमन की लाशें जिधर से वो निकले
अंग्रेज़ भी बहुत हैरान हुए, किस आफ़त ने आ घेर लिया

मोती बाई की तोपों ने शत्रु के मुँह को बन्द किया
सुन्दर मुन्दर की चोटों ने रण छोड़ दास को जन्म दिया
शाबाश बढ़ो आगे को जब रानी ऐसा चिल्लाती थी
मुठ्ठी भर की फ़ौज ने मिल, अंग्रेज़ों को बेहाल किया

जब कुछ भी हाथ नहीं आया, रोज़ दिल ही दिल घबराया
इक अबला के हाथों से पिटकर सोचने पर मजबूर किया
छल, कपट और मक्करी से मैं करूँ इस को कब्ज़े में
पीर अली और दुल्हाज़ू ने, गद्दारी में रोज़ का साथ दिया

दुल्हाजू ने जब किले का फाटक अंग्रेज़ों को खोल दिया
फिर टिड्डी दल की भाँती उस शत्रु ने पूरा वार किया
रानी निकली किले से अपने पुत्र को पीठ पे लिए हुए
सीधी पहुँची वो कालपी कुछ सेना को अपने साथ लिया

फिर घमासान युद्ध हुआ वहाँ थोड़ी सी सेना बची रही
इक दुशमन ने गोली मारी, दूजे ने सिर पर वार किया
पर भारत की उस देवी ने दोनों को मार नरक भेजा
और साथ उसने भी अपने प्राणों का मोह त्याग दिया

रानी तो स्वर्ग सिधार गई पर काम अभी पूरा न हुआ
स्वतंत्रता संग्राम के दीपक को अगली पीढ़ी को सौंप दिया
तुम तोड़ फेंकना मिलकर सब ग़ुलामी की इन ज़ंज़ीरों को
और भारत को स्वतंत्र करने का सपना सभी पर छोड़ दिया


क्षत्रिय वंदना

Ratan Singh Shekhawat, Jun 27, 2008
क्षत्रिय कुल में जन्म दिया तो ,क्षत्रिय के हित में जीवन बिताऊं |
धर्म के कंटकाकीर्ण मग पर ,धीरज से में कदम बढ़ाऊँ ||
भरे हलाहल है ये विष के प्याले ,दिल में है दुवेष के हाय फफोले |
जातीय गगन में चंद्र सा बन प्रभु, शीतल चांदनी में छिटकाऊँ ||
विचारानुकुल आचार बनाकर ,वास्तविक भक्ति से तुम्हे रिझाऊँ || १ ||
उच्च सिंहासन न मुझे बताना,स्वर्ग का चाहे न द्वार दिखाना |
जाति की फुलवारी में पुष्प बनाना , ताकि में सोरभ से जग को रिझाऊँ ||
डाली से तोडा भी जाऊँ तो भगवन, तेरा ही नेवेधे बन चरणों में आऊं || २ ||
साधन की कमी है कार्य कठिन है , मार्ग में माया के अनगिनत विध्न है |
बाधाओं दुविधावों के बंधन को तोड़के , सेवा के मार्ग में जीवन बिछाऊँ ||
पतों से फूलों से नदियों की कल कल से ,गुंजित हो जीवन का संदेश सुनाऊँ || ३



चार बांस चोवीस गज, अंगुळ अष्ट प्रमाण।

Ratan Singh Shekhawat, Jun 26, 2008






चार बांस चोवीस गज, अंगुळ अष्ट प्रमाण।



ईते पर सुळतान है, मत चूकैं चौहाण॥



ईहीं बाणं चौहाण, रा रावण उथप्यो।



ईहीं बाणं चौहाण, करण सिर अरजण काप्यौ॥



ईहीं बाणं चौहाण, संकर त्रिपरासुर संध्यो।



सो बाणं आज तो कर चढयो, चंद विरद सच्चों चवें।



चौवान राण संभर धणी, मत चूकैं मोटे तवे॥



ईसो राज पृथ्वीराज, जिसो गोकुळ में कानह।



ईसो राज पृथ्वीराज, जिसो हथह भीम कर॥



ईसो राज पृथ्वीराज, जिसो राम रावण संतावणईसो राज पृथ्वीराज, जिसो अहंकारी रावण॥



बरसी तीस सह आगरों, लछन बतीस संजुत तन।



ईम जपे चंद वरदाय वर, पृथ्वीराज उति हार ईन॥






राणा प्रताप के प्रन की जेय.....

Ratan Singh Shekhawat, Jun 17, 2008
दूग दूग दूग रन के डंके, मारू के साथ भ्याद बाजे!
ताप ताप ताप घोड़े कूद पड़े, काट काट मतंग के राद बजे!

कल कल कर उठी मुग़ल सेना, किलकर उठी, लालकर उठी!
ऐसी मायाण विवार से निकली तुरंत, आही नागिन सी फुल्कर उठी!

फ़र फ़र फ़र फ़र फ़र फेहरा उठ, अकबर का अभिमान निशान!
बढ़ चला पटक लेकर अपार, मद मस्त द्वीरध पेर मस्तमान!!

कॉलहाल पेर कॉलहाल सुन, शस्त्रों की सुन झंकार प्रबल!
मेवाड़ केसरी गर्ज उठा, सुन कर आही की लालकार प्रबल!!

हैर एक्लिंग को माता नवा, लोहा लेने चल पड़ा वीर!
चेतक का चंचल वेग देख, तट महा महा लजित समीर!!

लड़ लड़ कर अखिल महिताम को, शॉड़िंत से भर देने वाली!
तलवार वीर की तड़प उठी, आही कंठ क़ातर देने वाली!!

राणा को भर आनंद, सूरज समान छम चमा उठा!
बन माहाकाल का माहाकाल, भीषन भला दम दमा उठा!!

भारी प्रताप की वज़ी तुरत, बज चले दमामे धमार धमार!
धूम धूम रन के बाजे बजे, बज चले नगरे धमार धमार!!

अपने पेन हथियार लिए पेनी पेनी तलवार लिए !
आए ख़ार, कुंत, क़तर लिए जन्नी सेवा का भर लिए !!

कुछ घोड़े पेर कुछ हाथी पेर, कुछ योधा पैदल ही आए!
कुछ ले बर्चे , कुछ ले भाले, कुछ शार से तर्कस भर ले आए!!

रन यात्रा करते ही बोले, राणा की जेय राणा की जेय !
मेवाड़ सिपाही बोल उठे, शत बार महा-राणा की जेय!!

हल्दी-घाटी की रन की जेय, राणा प्रताप के प्रन की जेय!
जेय जेय भारत माता की , देश कन कन की जेय!!


धन्य हुआ रे राजस्थान,जो जन्म लिया यहां प्रताप ने।

Ratan Singh Shekhawat, Jun 10, 2008



धन्य हुआ रे राजस्थान,जो जन्म लिया यहां प्रताप ने।


धन्य हुआ रे सारा मेवाड़, जहां कदम रखे थे प्रताप ने॥


फीका पड़ा था तेज़ सुरज का, जब माथा उन्चा तु करता था।


फीकी हुई बिजली की चमक, जब-जब आंख खोली प्रताप ने॥


जब-जब तेरी तलवार उठी, तो दुश्मन टोली डोल गयी।


फीकी पड़ी दहाड़ शेर की, जब-जब तुने हुंकार भरी॥


था साथी तेरा घोड़ा चेतक, जिस पर तु सवारी करता था।


थी तुझमे कोई खास बात, कि अकबर तुझसे डरता था॥


हर मां कि ये ख्वाहिश है, कि एक प्रताप वो भी पैदा करे।


देख के उसकी शक्ती को, हर दुशमन उससे डरा करे॥


करता हुं नमन मै प्रताप को,जो वीरता का प्रतीक है।


तु लोह-पुरुष तु मातॄ-भक्त,तु अखण्डता का प्रतीक है॥


हे प्रताप मुझे तु शक्ती दे,दुश्मन को मै भी हराऊंगा।


मै हु तेरा एक अनुयायी,दुश्मन को मार भगाऊंगा॥


है धर्म हर हिन्दुस्तानी का,कि तेरे जैसा बनने का।


चलना है अब तो उसी मार्ग,जो मार्ग दिखाया प्रताप ने॥

Saturday, September 11, 2010

shiv singh ji sikar

राव शिव सिंह जी, सीकर

pawan Singh Shekhawat,
सीकर शेखावाटी राज्य का महत्वपूर्ण ठिकाना था,राजा रायसल जी शेखावत के पुत्र राव तिरमल के वंशज दौलत सिंह जी थे, दौलत सिंह जी ने सं. 1687 में सीकर को अपनी राजधानी बनाकर गढ़ की नीवं डाली |सं. 1721 में दौलत सिंह के निधन के बाद शिव सिंह जी सीकर के स्वामी बने | इन्हे पिता से 25 गावं उत्राधिकार में मिले थे शिव सिंह जी सीकर ढंग से बसना आरम्भ किया ओर सीकर के चारों और पकी चार दिवार बना कर सीकर को शत्रु के लिए दुर्जेय बना दिया | राव शिव सिंह जी के सहायता पाकर वि. सं. 1782 में 150 घुड़ सवारों के साथ शार्दुल सिंह जी ने अपने बेर शोधन के लिए फतेहपुर पर आक्रमण कर नबाब सरदार खान को हरा दिया |
वि.सं.1787 के प्रथम दिन चेत्र शुक्ल 1 से रो शिव सिंह जी ने फतेहपुर वाटी पर पूर्ण अधिकार कर शासन आरंभ कर दिया रो शिव सिंह जी ने अपनविस्तृत राज्य पर सं. 1721 से 1748 ई. तक राज्य किया राव शिव सिंह जी ने जयपुर नरेश सवाई जय सिंह जी के पक्ष मराठों, बूंदी और जोधपुर के राठोरों के साथ ऐसी तलवार बजाई जिसका वर्णन उस समय के इतिहास में अमित लिपि से लिखा हुवा है |कछवाहों की ओर से कोटा बूंदी, मेवाड़ व मारवाड़ पर जो चडाइयां हुई उनमे राव शिव सिंह जी ने अपनी तलवार के जोहर दिखलाये थे |वि. सं. 1800 में जय सिंह जी के निधन के महाराजा ईश्वर सिंह जी जयपुर के राजा बने,वि.सं. 1805 में जय सिंह जी के अन्य पुत्र माधो सिंह जी जयपुर की गद्दी पाने के पर्यत्न में बूंदी नरेश उमेद सिंह जी व मल्लार राव होलकर को प्रबल सेना के साथ जयपुर पर चडा लाये | लड़ाना नामक स्थान पर पड़ाव दल कर मल्लार राव ने अपने प्रधान सेनापति गंगाधर भट्ट को आठ हजार सेनिकों के साथ जयपुर भेजा जिसने नगर द्वार के कपाटों को तोड़ डाला ओंर अचानक आकर लूटपाट मचा दी, महाराजा ईश्वर सिंह जी इस दुखद उपद्रव को देख दुखी हुए और शिव सिंह जी को शत्रु का सामना करने भेजा,शिव सिंह जी ने शत्रु को 15 k m भगा कर महाराज को अभिवादन किया | इसके बाद मल्लार राव के साथ हाडा,राठोड़ और राणावत जयपुर के विरुद्ध आ डटे घमासान युद्ध हुवा |जयपुर की और से भरतपुर का इतिहास प्रसिद्ध वीर सूरजमल जाट व शेखावतों ने भाग लिया |मुख्य सेनापति के रूप में युद्ध में राव शिव सिंह जी घायल हुए,आहत होने के बाद शिव सिंह जी जयपुर रहे घाव सुकने के बाद एकाएक व्याधि बढ गयी और वीर राव जी ने वि.सं. 1805 में इस असार संसार को त्याग दिया | शिव सिंह जी की इच्छा नुसार चाँद सिंह जी सीकर की गद्दी पर विराजे |राव शिव सिंह जी ने अपने पेत्रिक राज्य को मुसलमानों से फतेहपुर छीन कर विस्तृत कर दिया था |झुंझुनू में भी कायम्खानी शासन की नीवं उखाड़ने में शिव सिंह जी ने शार्दुल सिंह जी की सहायता की |शार्दुल सिंह जी भोजराज जी का शेखावतों में वीर व भाग्य शाली पुरुस थे अपनी वीरता के कारण वे दुसरे शेखा जी कहलाते थे |शिव सिंह जी व शार्दुल सिंह जी परस्पर सहयोगी थे आपसी सहयोग से ही दौनों ने फतेहपुर व झुंझुनू से कायम्खानी नबाबियाँ का अंत कर वहाँ शेखावत राज्य की स्थापना की,जिस पर इनके वीर वन्सजों का जागीर समाप्ति तकपूर्ण अधिकार रहा |अपने मुखिया की शक्ति बढाने में इन दोनों ही वीरों ने सवाई जय सिंह जी की भरपूर सैनिक सहायता की और अपनी इहलीला भी अपने पाटवी राज्य जयपुर के लिए ही कुर्बानी देकर ही की



शेखावाटी के प्रसिद्ध युद्ध

नरेश सिह राठौड़, Mar 22, 2009
1. हरिपुरा का युद्ध --> खंडेला के राजा केशरी सिह और बादशाह औरंगजेब के सूबेदार सैयद अब्दुल्ला के मध्य वि स० 1754 में हुआ था | युद्ध का कारन केशरी सिह का बादशाह को ट्रिब्यूट ना देना था | इस युद्ध में केशरी सिह रण खेत रहे |
2. फतेह पुर का युद्ध --> नवाब कामयाब खां ओर शार्दूल सिंह ,शिव सिंह के मध्य हुआ वि स ० 1788 में हुआ नवाब की पराजय हुयी | युद्ध का कारण फतेह पुर पर कब्जा करना था |
3. मावन्डा का युद्ध--> जाट राजा जवाहर मल व महाराजा जयपुर की सेना जिसमें सभी शेखावत ठिकानो के सरदार शामिल थे के मध्य वि.स. 1824 में मावन्डा मढौली के पास हुआ जिसमे जवाहर मॉल की पराजय हुयी लेकिन ठिकाने दारो का भी काफी नुकशान हुआ |
4. मान्ढण का युद्ध -->दिल्ली के सुलतान शाह आलम के वफादार नजब कुली खा और शेखावत सरदारों के मध्य वि.स. 1832 में सिघाना के पास हुआ | शाही सेना को भागना पड़ा बहुत से शेखावत सरदार शहीद हुए |
5. खाटू का युद्ध--> शाही सेना के वफादार मुर्ताज खा भडेज और देवी सिंह के मध्य हुआ | देवी सिंह का साथ जयपुर की सेना व शेखावत सरदार थे यह युद्ध वि.स.1837 में खाटू के मैदान में हुआ | शाही सेना के २२ हजार सैनिक मारे गए और मैदान छोड़ के भागना पडा
6. पाटन का युद्ध -->मराठो व जयपुर की सेना के बीच हुआ था जिसमें मराठो का नेतृत्व फ्रैंच सेनापति डिबेयन कर रहा था | इधर जयपुर की सेना में जोधपुर के सैनिक व् जयपुर की नागा महंतो की जमात अन्य शेखावत सरदार थे |यह युद्ध पाटन (तोरावटि) नमक स्थान पर वि.स.1847 में हुआ जिसमें शेखावतों की हार हुयी |
7. फतेहपुर का युद्ध --> यह युद्ध वि.स.1856 में मराठो व् जयपुर की सेना के बीच लड़ा गया | यह फतेहपुर के पास हुआ था | मराठो की तरफ से बामन राव के नेतृत्व में तथा जयपुर की तरफ से रोडा राम दरजी के नेतृत्व में लडा गया | इसमें भी जयपुर सेना की हार हुयी | लेकिन बामन राव को भी बहुत बडी कीमत चुकानी पडी ।
(यह लेख इतिहास के ग्रंथो को आधार मानकर लिखा गया है । चित्र गुगल से लिये गये है । किसी को आपत्ति होने पर हटा दिये जायेंगे ।

rajput

वीर श्रेष्ठ रघुनाथ सिंह मेडतिया , मारोठ-1

pawan Singh Shekhawat,
राजस्थान के नागौर पट्टी का गौड़ावाटी भू - भाग दीर्घ काल तक गौड़ क्षत्रियों के आधिपत्य में रहा | गौडों द्वारा शासित होने के कारण ही इस भाग का गौड़ावाटी नाम प्रसिद्ध हुआ | गौडों की काव्य-बद्ध वंशावली में वर्णन है कि चौहान सम्राट पृथ्वी राज तृतीय के शासन-काल में बंगाल की और से अच्छराज तथा बच्छराज नामक दो भाई राजस्थान में आये और पृथ्वीराज ने उन उभय गौड़ भ्राताओं को साम्भर के पास मारोठ नामक भू-भाग जागीर में दिया | उस समय मारोठ के समीपस्थ गांवों में दहिया शाखा के क्षत्रियों का अधिकार था | तब दहियों का मुखिया बिल्हण था | गौड़ भ्राताओं ने दहियों पर आक्रमण कर वह भू-खंड भी हस्तगत किया | गौड़ भ्राता साहसी तो थे , पर उदार भी थे | उनकी उदारता प्रशंसा कालांतर में भी राजस्थान में प्रचलित रही | कवि दुर्गादत्त बारहट ने अपनी "निशानी दातारमाला " रचना में दोनों गौडों की उदार वृति की उन्मुक्त भाव से सराहना की है -


अच्छा बच्छा गौड़ था अजमेर नगर का
दान दिए तिस अरबदा कव द्रव्य अमर का

चौहान साम्राज्य के पतन के बाद कोई सोलहवीं शताब्दी में कछवाहों की शेखावत शाखा का उदय हुआ | शेखावत शाखा के प्रवर्तक राव शेखा ने गौड़ावाटी पर ग्यारह बार आक्रमण कर उनकी शक्ति को समाप्तप्राय: कर दिया था | गौड़ावाटी के उत्तरी भाग पर अधिकार भी तब शेखावतों ने कर लिया था | गौड़ पर्याप्त शक्ति क्षीण हो गए थे | परन्तु मुग़ल सम्राट शाहजहाँ के समय में गौडों का पुन: त्वरा के साथ प्रभाव बढा | शाहजहाँ ने गौड़ गोपालदास के मरणोत्सर्ग और सेवा से प्रसन्न होकर उनको कछवाहों और राठौड़ों के समान जागीर तथा मनसब प्रदान कर उन्नत किया | शाहजहाँ के समय में में अजमेर , किशनगढ़ , रणथम्भोर और साम्भर के पास गौडावाटी आदि पर गौडों का अधिकार हो गया | पर गौडों का शाहजहाँ के समय जिस तीव्रता से प्रभाव बढा था उसी गति से शाहजहाँ के पतन के साथ ही गौडों का राजनैतिक पराभव भी हो गया |
बादशाह औरंगजेब ने गौडावाटी का परगना पुनलौता ग्राम के सांवलदास मेडतिया के छोटे पुत्र रघुनाथ सिंह को ११२ गावों के वतन के रूप में दे दिया | यधपि मुगलकाल में यह परगना अनेक व्यक्तियों को मिलता रहा , पर गौडों का इस पर अधिकार बना ही रहा | रघुनाथ सिंह दक्षिण में औरंगजेब के साथ था और उत्तराधिकार के उज्जैन और धोलपुर के युद्धों में भी उनके पक्ष में लड़ा था | यधपि उपरोक्त युद्धों में अनेक गौड़ योद्धा काम आये और राजनैतिक दृष्टि में भी उनकी स्थिति में पर्याप्त अंतर आया , परन्तु फिर भी रघनाथ सिंह मेडतिया अपनी स्वशक्ति से गौडों पर विजय पाने में समर्थ नहीं था | वह बगरू ठिकाने के चतरभुज राजवातों का भांजा था और उसका एक विवाह माधोमंडल के भारीजा संस्थान के लाड्खानोत उदय सिंह माधोदास के पुत्र कानसिंह के यहाँ हुआ था | उदय सिंह गौडों के साथ की लड़ाई में मारा गया था | उसका पुत्र कानसिंह शेखावत बड़ा पराक्रमी था | उसने रघनाथ सिंह , बगरू के राजवातों और अपने शेखावत भाइयों के साथ मिलकर संयुक्त शक्ति के साथ गौडों के मारोठ,पांचोता,पांचवा,लूणवा और मिठडी ठिकानों पर आक्रमण कर उनकी जागीरे छीन ली और शेखावतों की ख्यात के अनुसार - " सात बीसी गांव गोडाती का दबा लिया सो तो जंवाई सा रघुनाथ सिंह मेडतिया नै दे दिया , आपका बेटा पौता मै भारिजौ , गोरयां,डूंगरयां,दलेलपुरो,घाटवौ,खौरंडी,हुडील मै छै |"
इस कथन से इतना ही सिद्ध होता है कि गौडों की विजय में कानसिंह शेखावत का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा था | उसके नाम पर जीजोट के पास दो गिरीखण्डों के बीच के दर्रे का नाम कानजी का घाटा कहलाता है | इसी प्रकार चितावा आदि में राजवतों का हिस्सा रहा ओर शेष गौड़ावाटी पर मेड़तीयों का अधिकार हो गया | ये संवत १७१७ के आस-पास की घटनाएँ है | रघुनाथ सिंह ने संवत १७१९ वि. में चारणों को भूमि दी थी जिनकी नकलों से सिद्ध होता है कि १७१९ वि. में ही गौड़ावाटी पर उनका पूर्ण रूप से अधिकार हुआ होगा

बीच युद्ध से लौटे राजा को रानी की फटकार

pawan singh Shekhawat,

बात जोधपुर की चल रही है तो यहाँ के अनेक राजाओं में एक और यशस्वी राजा जसवंत सिंह जी और उनकी हाड़ी रानी जसवंत दे की भी चर्चा करली जाए | महाराज जसवन्त सिंह जी ने दिल्ली की और से बादशाह शाहजहाँ और औरंगजेब की और से कई सफल सैनिक अभियानों का नेतृत्व किया था तथा जब तक वे जीवित रहे तब तक औरंगजेब को कभी हिन्दू धर्म विरोधी कार्य नही करने दिया चाहे वह मन्दिर तोड़ना हो या हिन्दुओं पर जजिया कर लगना हो , जसवंत सिंह जी के जीते जी औरंगजेब इन कार्यों में कभी सफल नही हो सका | २८ नवम्बर १६७८ को काबुल में जसवंत सिंह के निधन का समाचार जब औरंगजेब ने सुना तब उसने कहा " आज धर्म विरोध का द्वार टूट गया है " |
ये वही जसवंत सिंह थे जिन्होंने एक वीर व निडर बालक द्वारा जोधपुर सेना के ऊँटों की व उन्हें चराने वालों की गर्दन काटने पर सजा के बदले उस वीर बालक की स्पष्टवादिता,वीरता और निडरता देख उसे सम्मान के साथ अपना अंगरक्षक बनाया और बाद में अपना सेनापति भी | यह वीर बालक कोई और नही इतिहास में वीरता के साथ स्वामिभक्ति के रूप में प्रसिद्ध वीर शिरोमणि दुर्गादास राठौड़ था |
महाराज जसवंत सिंह जिस तरह से वीर पुरूष थे ठीक उसी तरह उनकी हाड़ी रानी जो बूंदी के शासक शत्रुशाल हाड़ा की पुत्री थी भी अपनी आन-बाण की पक्की थी | १६५७ ई. में शाहजहाँ के बीमार पड़ने पर उसके पुत्रों ने दिल्ली की बादशाहत के लिए विद्रोह कर दिया अतः उनमे एक पुत्र औरंगजेब का विद्रोह दबाने हेतु शाजहाँ ने जसवंत सिंह को मुग़ल सेनापति कासिम खां सहित भेजा | उज्जेन से १५ मील दूर धनपत के मैदान में भयंकर युद्ध हुआ लेकिन धूर्त और कूटनीति में माहिर औरंगजेब की कूटनीति के चलते मुग़ल सेना के सेनापति कासिम खां सहित १५ अन्य मुग़ल अमीर भी औरंगजेब से मिल गए | अतः राजपूत सरदारों ने शाही सेना के मुस्लिम अफसरों के औरंगजेब से मिलने व मराठा सैनिको के भी भाग जाने के मध्य नजर युद्ध की भयंकरता व परिस्थितियों को देखकर ज्यादा घायल हो चुके महाराज जसवंत सिंह जी को न चाहते हुए भी जबरजस्ती घोडे पर बिठा ६०० राजपूत सैनिकों के साथ जोधपुर रवाना कर दिया और उनके स्थान पर रतलाम नरेश रतन सिंह को अपना नायक नियुक्त कर औरंगजेब के साथ युद्ध कर सभी ने वीर गति प्राप्त की |इस युद्ध में औरग्जेब की विजय हुयी |
महाराजा जसवंत सिंह जी के जोधपुर पहुँचने की ख़बर जब किलेदारों ने महारानी जसवंत दे को दे महाराज के स्वागत की तैयारियों का अनुरोध किया लेकिन महारानी ने किलेदारों को किले के दरवाजे बंद करने के आदेश दे जसवंत सिंह को कहला भेजा कि युद्ध से हारकर जीवित आए राजा के लिए किले में कोई जगह नही होती साथ अपनी सास राजमाता से कहा कि आपके पुत्र ने यदि युद्ध में लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त किया होता तो मुझे गर्व होता और में अपने आप को धन्य समझती | लेकिन आपके पुत्र ने तो पुरे राठौड़ वंश के साथ-साथ मेरे हाड़ा वंश को भी कलंकित कर दिया | आख़िर महाराजा द्वारा रानी को विश्वास दिलाने के बाद कि मै युद्ध से कायर की तरह भाग कर नही आया बल्कि मै तो सेन्य-संसाधन जुटाने आया हूँ तब रानी ने किले के दरवाजे खुलवाये | लेकिन तब भी रानी ने महाराजा को चाँदी के बर्तनों की बजाय लकड़ी के बर्तनों में खाना परोसा और महाराजा द्वारा कारण पूछने पर बताया कि कही बर्तनों के टकराने की आवाज को आप तलवारों की खनखनाहट समझ डर न जाए इसलिए आपको लकड़ी के बर्तनों में खाना परोसा गया है | रानी के आन-बान युक्त व्यंग्य बाण रूपी शब्द सुनकर महाराज को अपनी रानी पर बड़ा गर्व हुआ



राजस्थान के लोक देवता श्री पाबूजी राठौङ-भाग ३ (अन्तिम भाग)




गुजरात राज्य मे एक स्थान है अंजार वैसे तो यह स्थान अपने चाकू,तलवार,कटार आदि बनाने के लिये प्रसिद्ध है । इस स्थान का जिक्र मै यहाँ इस लिये कर रहा हूं क्यों कि देवल चारणी यही कि वासी थी । उसके पास एक काले रंग की घोडी थी । जिसका नाम केसर कालमी था । उस घोडी की प्रसिद्धि दूर दूर तक फैली हुई थी। उस घोडी को को जायल (नागौर) के जिन्द राव खींची ने डोरा बांधा था । और कहा कि यह घोडी मै लुंगा । यदि मेरी इच्छा के विरूद्ध तुम ने यह घोडी किसी और को दे दी तो मै तुम्हारी सभी गायों को ले जाउगां ।
एक रात श्री पाबूजी महाराज को स्वप्न आता है और उन्हें यह घोडी(केशर कालमी) दिखायी देती है । सुबह वो इसे लाने का विचार करते है । और अपने खास सरदार चान्दा जी, डेमा जी के साथ अंजार के लिये कूच करते है । देवल चारणी उनकी अच्छी आव भगत करती है और आने का प्रयोजन पूछती है । श्री पाबूजी महाराज देवल से केशर कालमी को मांगते है । देवल उन्हें मना कर देती है और उन्हें बताती है कि इस घोडी को जिन्द राव खींची ने डोरा बांधा है और मेरी गायो के अपहरण कि धमकी भी दी हुइ है । यह सुनकर श्री पाबूजी महाराज देवल चारणी को वचन देते है कि तुम्हारी गायों कि रक्षा कि जिम्मेदारी आज से मेरी है । जब भी तुम विपत्ति मे मुझे पुकारोगी अपने पास ही पाओगी । उनकी बात सुनकर के देवल अपनी घोडी उन्हें दे देती है ।
श्री पाबूजी महाराज के दो बहिन होती है पेमल बाइ व सोनल बाइ । जिन्द राव खींची का विवाह श्री पाबूजी महाराज कि बहिन पेमल बाइ के साथ होता है । सोनल बाइ का विवाह सिरोही के महाराज सूरा देवडा के साथ होता है । जिन्द राव
शादी के समय दहेज मे केशर कालमी कि मांग करता है । जिसे श्री पाबूजी महाराज के बडे भाइ बूढा जी द्वारा मान लिया जाता है लेकिन श्री पाबूजी महाराज घोडी देने से इंकार कर देते है इस बात पर श्री पाबूजी महाराज का अपने बड़े भाइ के साथ मनमुटाव हो जाता है ।
अमर कोट के सोढा सरदार सूरज मल जी कि पुत्री फूलवन्ती बाई का रिश्ता श्री पाबूजी महाराज के लिये आता है । जिसे श्री पाबूजी महाराज सहर्ष स्वीकार कर लेते है । तय समय पर श्री पाबूजी महाराज बारात लेकर अमरकोट के लिये प्रस्थान करते है । कहते है कि पहले ऊंट के पांच पैर होते थे इस वजह से बरात धीमे चल रही थी । जिसे देख कर श्री पाबूजी महाराज ने ऊंट के बीच वाले पैर के नीचे हथेली रख कर उसे उपर पेट कि तरफ धकेल दिया जिससे वह पेट मे घुस गया । आज भी ऊंट के पेट पैर पांचवे पैर का निशान है ।
इधर देवल चारणी कि गायो को जिन्दा राव खींची ले जाता है | देवल चारणी काफी मिन्नते करती है लेकिन वह नही मानता है , और गायो को जबरन ले जाता है | देवल चारणी एक चिडिया का रूप धारण करके अमर कोट पहुच जाती है | अमर कोट में उस वक्त श्री पाबूजी महाराज की शादी में फेरो की रस्म चल रही होती है तीन फेरे ही लिए थे की चिडिया के वेश में देवल चारणी ने वहा रोते हुए आप बीती सुनाई | उसकी आवाज सुनकर पाबूजी का खून खोल उठा और वे रस्म को बीच में ही छोड़ कर युद्ध के लिए प्रस्थान करते है | (कहते है उस दिन से राजपूतो में आधे फेरो का ही रिवाज कल पड़ा )
पाबूजी महाराज अपने जीजा जिन्दराव खिंची को ललकारते है | वहा पर भयानक युद्ध होता है | पाबूजी महाराज अपने युद्ध कोशल से जिन्दराव को परस्त कर देते है लेकिन बहिन के सुहाग को सुरक्षित रखने के लिहाज से जिन्दराव को जिन्दा छोड़ देते है |सभी गायो को लाकर वापस देवल चारणी को सोप देते है और अपनी गायो को देख लेने को कहते है | देवल चारणी कहती है की एक बछडा कम है | पाबूजी महाराज वापस जाकर उस बछड़े को भी लाकर दे देते है |
रात को अपने गाँव गुन्जवा में विश्राम करते है तभी रात को जिन्दराव खींची अपने मामा फूल दे भाटी के साथ मिल कर सोते हुओं पर हमला करता है | जिन्दराव के साथ पाबूजी महाराज का युद्ध चल रहा होता है और उनके पीछे से फूल दे भाटी वार करता है | और इस प्रकार श्री पाबूजी महाराज गायो की रक्षा करते हुए अपने प्राणों की आहुति दे देते है | पाबूजी महाराज की रानी फूलवंती जी , व बूढा जी की रानी गहलोतनी जी व अन्य राजपूत सरदारों की राणियां अपने अपने पति के साथ सती हो जाती है | कहते है की बूढाजी की रानी गहलोतनी जी गर्भ से होती है | हिन्दू शास्त्रों के अनुसार गर्भवती स्त्री सती नहीं हो सकती है | इस लिए वो अपना पेट कटार से काट कर पेट से बच्चे को निकाल कर अपनी सास को सोंप कर कहती है की यह बड़ा होकर अपने पिता व चाचा का बदला जिन्दराव से जरूर लेगा | यह कह कर वह सती हो जाती है | कालान्तर में वह बच्चा झरडा जी ( रूपनाथ जो की गुरू गोरखनाथ जी के चेले होते है ) के रूप में प्रसिद्ध होते है तथा अपनी भुवा की मदद से अपने फूफा को मार कर बदला लेते है और जंगल में तपस्या के लिए निकल जाते है |
पाठक मित्रो को बोरियत से बचाने के लिये कथा को सीमित कर दिया गया है । पिछली पोस्ट मे कही टिप्पणी करते हुये ताऊ ने पूछा कि गोगा जी अलग थे क्या ? जवाब मे अभी मै इतना ही कहूंगा कि गोगाजी चौहान वंश मे हुये थे श्री पाबूजी महाराज के बड़े भाई बूढा जी कि पुत्री केलम दे के पती थे । गोगाजी चौहान के बारे मे विस्तार से अगली पोस्ट मे लिखूगां । अब चलते चलते पाबूजी महाराज कि शादी का एक विडियो भी हो जाये



सीहा जी पर लगे मिथ्या आरोप

पिछले लेख में मोहम्मद गौरी का नाम शहाबुद्धीन लिख देने से काफी पाठको ने इस बात को समझाने में परेशानी अनुभव की | मोहम्मद गौरी का पूरा नाम मोहम्मद शहाबुद्धीन गोरी था | अब बात करते है सीहा जी की |
सीहा ,कनौज के प्रमुख राजा जयचन्द राठौड के पौत्र थे । राजस्थान मे राठौड वंश की स्थापना इनके कनौज से राजस्थान आगमन से ही हुई है । इन पर आरोप लगाया गया था कि पल्लीवाल ब्राहम्णो को धोखे से मार कर पाली पर अधिकार किया था । इस लेख मे हम इस आरोप की सच्चाई की पड़ताल करेंगे ।
कर्नल टोड के " राजस्थान के इतिहास ' में लिखा है कि:- सीहाजी ने गुहिलो को भगा कर लुनी के रेतीले भाग मे बसे खेड पर अपना राठौडी झण्डा खड़ा किया ।
उस समय पाली, और उसके आस पास का प्रदेश पल्लीवाल ब्राहम्णो के अधीन था ,और उस पाली नामक नगर के कारणः ही वे पल्लीवाल कहाते थे । परंतु आस पास की मीणा व मेर नामक जंगली लूटेरी कोमो से तंग आकर उन्होने सीहाजीसे सहायता मांगी इस पर सीहा जी ने सहायता देना स्वीकार किया और शीघ्र ही लूटेरो को दबाकर ब्राहम्णो का संकट दूर कर कर दिया ।यह देख पल्लीवालो ने, भविष्य मे होने वाले लूटेरो के उपद्रव से बचने के लिये,सीहाजी से कुछ भूमि लेकर वही बस जाने की प्रार्थना की, जिसे उन्होने भी स्वीकार कर लिया । परंतु कुछ समय बाद सीहाजी ने ,पल्लीवाल ब्राहम्णो के मुखिया को धोखे से मार कर, पाली को अपने जीते हुये प्रदेश मे मिला लिया ।
इस लेख से प्रकट होता है कि ,पल्लीवालो को सहायता देने से पूर्व ही महेवा और खेड राव सीहा जी के अधिकार मे आ चुके थे ।ऐसी हालत मे सीहाजी का उन प्रदेशों को छोड़ कर पल्लीवाल ब्राहम्णो की दी हुई साधारण सी भूमि के लिये पाली मे आकर बसना कैसे सम्भव समझा जा सकता है ? इसके अलावा उस समय उनके पास इतनी सेना भी नही थी कि, वह महेवा और खेड दोनों का प्रबन्ध करने के साथ पाली पर आक्रमण करने वाले लूटेरो पर भी आतंक बनाये रखते ।
इसके अतिरिक्त पुरानी ख्यातो मे पल्लीवाल ब्राहम्णो को केवल वैभवशाली व्यापारी ही लिखा है । पाली के शासन का उनके हाथ मे होना ,या सीहाजी का उन्हें मार कर पाली पर अधिकार करना उसमे कही भी नही लिखा है । वि.स. 1262 से वि.स. 1306 के बीच समय के कुछ लेख भीनमाल से मिले है जिससे ज्ञात होता है कि ये प्रदेश पहले सोलंकीयो के हाथ मे था बाद मे चौहाणो के हाथ मे आ गया । उस समय की भौगोलिक अव राजनीति स्थितियों को समझने पर ज्ञात होता है कि पाली भी पल्लीवाल ब्राहम्णोकेअधीन न होकर सोलंकीयो या चौहानो के अधिकार मे रहा होगा । एसी अवस्था मे निर्बल,शरणागत, और व्यापार करने वाले पल्लीवाल ब्राहम्णो को मारने की कौनसी आवश्यकता थी ? इसके अतिरिक्त टोड के लेख से यह भी सिद्ध हो जाता है कि पल्लीवाल ब्राहम्णो ने स्वय ही उन्हें बुलाया था अपने रक्षार्थ । इस हिसाब से देखा जाये तो सीहाजी वैसे ही वहा के शासक तो हो ही चुके थे । और व्यापारी पल्लीवाल ब्राहम्णो को उजाड़ कर उन्हें क्या मिलता उन्हे तो बसाने से फायदा हो रहा था क्यों कि आपने राज्य मे व्यापार का बढ़ावा ही मिल ता । इस लिये पल्लीवाल ब्राहम्णो को उजाडने मे तो उन्हीं का नुकसान था



जय चन्द राठौड़ पर लगे मिथ्या आरोप

नरेश सिह राठौड़, May 25, 2009
कुछ लोग जिनमें इतिहासकार भी शामिल है जयचंद को हिन्दू साम्राज्य का नाशक कहकर उससे घरना प्रकट करते है | और कुछ उनके पौत्र सीहा जी पर पल्लीवाल ब्राहमणों को धोखे से मार कर पाली पर अधिकार करने का कलंक लगाते है | वास्तव में देखा जाए तो इसे लोग इन कथाओं को "बाबा वाक्य प्रमाणं " समझ कर ,या ‘पृथ्वीराज रासो ' में और कर्नल टोड के " राजस्थान के इतिहास ' में लिखा देख कर ही सच्ची बात मान लेते है लेकिन वास्तविकता पर गौर नहीं करते है |

पृथ्वीराज रासो के अनुसार जयचंद ने वि.स. ११४४ में 'राजसूय यज ' और संयोगिता का स्वंयवर करने का विचार किया, तब प्रथ्वी राज ने विघ्न डालने के उद्देश्य से खोखन्द पुर में जाकर जयचंद के भाई बालुक राय को मार डाला और बाद में संयोगिता का हरण कर लिया, इससे लाचार होकर जयचंद को युद्घ करना पडा | यह युद्घ ११५१ में हुआ | उसके बाद पृथ्वीराज संयोगिता के मोह पाश में बंध गया और राज कार्य में शिथिल पड़ गया | इन्ही परिस्थितियों को कर शहाबुद्धीन ने देहली पर फिर चढाई की |पृथ्वीराज सेना लेकर मुकाबले में आ गया | इस युद्ध में शहाबुद्धीन विजयी हुआ | पृथ्वीराज पकडा गया | और गजनी पहुँचाया गया जहा पर शहाबुद्धीन और पृथ्वीराज दोनों मारे गए | कुतुबुद्धीन उनका उत्तराधिकारी बना | कुतुबुद्धीन ने आगे बाधा करा कनौज पर चढाई की जयचंद युद्ध में मारा गया | और मुसलमान विजयी हुए |

इस उपरोक्त कथा में जिस यज्ञ व स्वयंवर का वर्णन किया है उसके बारे में जयचंद के समय की किसी भी प्रशस्तियो मे नहीं है | जयचंद के समय के १४ ताम्र पात्र और २ लेख मिले है इनमें अंतिम लेख वि.स. १२४५ का है | रासो मे जिस संयोगिता के हरण की बात कही गयी है वह काल्पनिक है क्यों की इसका उल्लेख ना तो पृथ्वीराज के समय बने ‘पृथ्वीराज विजय महाकाव्य’ मे ही मिलता है और न ही वि.स. की चौदहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध मे बने ’हम्मीर महाकाव्य’ मे ही मिलता है इसी हालत मे इस कथा पर विश्वास करना अपने आप को धोखा देना है रासो मे शहाबुद्धीन के स्थान पर कुतुबुद्धीन का जयचंद पर चढाई करना लिखा है | परन्तु फारसी तवारिखो के अनुसार यह चढाई शहाबुद्धीन के मरने के बाद न होकर उसकी जिन्दगी मे हुयी थी| स्वय शहाबुद्धीन ने इसमें भाग लिया था उसकी मृत्यु वि.स. १२६२ मे हुयी थी इसके अलावा किसी भी फारसी तवारिखो मे जयचंद का शहाबुद्धीन से मिल जाना नहीं लिखा है |

यदि ‘रासो’ की सारी कथा सही भी मान ले तब भी उसमे संयोगिता हरण के कारण जयचन्द का शहाबुद्धीन को पृथ्वीराज पर आक्रमण करने का निमंत्रण देना या उससे किसी प्रकार का सम्पर्क रखना कही भी लिखा हुआ नही मिलता है । इसके विपरीत उसमे स्थान स्थान पर पृथ्वीराज को परायी कन्याओ का अपहरणकर्ता बताया गया है । जिससे उसकी उद्दण्डता ,उसकी कामासक्ति का वर्णन होने से उसकी राज्य कार्य में गफ़लत ,उसके चामुण्ड राय जैसे स्वामी भक्त सेवक को बिना विचार के कैद में डालने की कथा से उसकी गलती ,और उसके नाना के दिए राज्य में बसने वाली प्रजा के उत्पीड़न से कठोरता ही प्रकट होती है | इसी के साथ उसमे पृथ्वीराज के प्रमाद से उसके सामंतो का शहाबुद्धीन से मिल जाना भी लिखा है |

एसी हालत मे विचार शील विद्वान स्वंय सोच सकते है कि जयचन्द को हिन्दू साम्राज्य का नासक कह कर कलंकित करना कहाँ तक न्यायोचित है ।

रासो के समान ही ‘आल्हाखण्ड’मे भी संयोगिता के स्वयंवर का किस्सा दिया हुआ है । परंतु उसके रासो के बाद की रचना होने से स्पष्ट ज्ञात होता है कि उसके लेखक ने रासो का ही अनुसरण किया है इस लिये उसकी कथा पर भी विश्वास नही किया जा सकता है ।

जयचंद कनौज का अन्तिम हिन्दू प्रतापी राजा था | उसने ७०० योजन (५६०० मील) भूमि पर विजय प्राप्त की | जयचंद नेअनेक किले भी बनवाये थे इन में से एक कनौज में गंगा के तट पर ,दूसरा असीई ( जिला इटावा) में यमुना के तट पर ,तीसराकुर्रा में गंगा ले तट पर - शेष अगले भाग में |


राव विरमदेव, मेड़ता

Ratan Singh Shekhawat, Dec 20, 2008
राव विरमदेव ने 38 वर्ष की आयु में 1515 ई. में अपने पिता राव दुदा के निधन के बाद मेड़ता का शासन संभाला | व्यक्तित्व और वीरता की द्रष्टि से वे अपने पिता के ही समान थे और उन्होंने भी पिता की भांति जोधपुर राज्य से सहयोग और सामंजस्य रखा |
इसीलिए सारंग खां व मल्लू खां जैसे बलवानों को परास्त करने में विरमदेव सफल रहे | विरमदेव चित्तोड़ के महाराणा सांगा के विश्वासपात्र व्यक्ति थे | उन्होंने सांगा द्वारा गुजरात के बादशाह मुज्जफरशाह के विरुद्ध,सांगा के ईडर अभियान के अलावा मालवा और दिल्ली के सुल्तानों से सांगा के युधों में अपने शोर्य का डंका बजाया था |
लेकिन राव सुजा के पश्चात् जोधपुर की राजगद्दी के लिए जो उठापटक हुयी उसके चलते जोधपुर और मेड़ता के बीच वैमनस्य के बीज बो दिए | और दोनों राज्यों के बीच विरोध की खाई अधिक गहरी हो गई | जो सोहार्दपूर्ण सम्बन्ध मेड़ता और मेवाड़ के बीच रहे उसी प्रकार के संबंध जोधपुर के साथ भी रहते तो आज इतिहास कुछ और ही होता | 12 मई 1531 को राव गंगा के निधन के बाद राव मालदेव जोधपुर के शासक बनें जो अपने समय के राजपुताना के सबसे शक्तिशाली शासक माने जाते थे उनके मन में विरमदेव के प्रति घृणा के बीज पहले से ही मौजूद थे अतः शासक बनते ही उन्होंने मेड़ता पर आक्रमण शुरू कर दिए | पराकर्मी विरमदेव ने अजमेर में मालवा के सुल्तान के सूबेदार को भगाकर अजमेर पर भी कब्जा कर लिया जो मालदेव को सहन नहीं हुआ और उसने अपने पराकर्मी सेनापति जैता और कुंपा के नेतृत्व में विशाल सेना भेज कर मेड़ता और अजमेर पर हमला कर विरमदेव को हरा खदेड़ दिया लेकिन साहसी विरमदेव ने डीडवाना पर अधिकार जा जमाया | किन्तु मालदेव की विशाल सेना ने वहां भी विरमदेव को जा घेरा जहाँ विरमदेव ने मालदेव की सेना से युद्ध में जमकर तलवार बजायी | उनकी वीरता से प्रभावित होकर सेनापति जैता ने विरमदेव की वीरता की प्रशंसा करते हुए कहा कि आप जैसे वीर से यदि मालदेव का मेल हो जाये तो मालदेव पुरे हिन्दुस्थान पर विजय पा सकतें है | डीडवाना भी हाथ से निकलने के बाद विरमदेव अमरसर राव रायमल जी के पास आ गए जहाँ वे एक वर्ष तक रहे और आखिर वे शेरशाह सूरी के पास जा पहुंचे | मालदेव कि विरमदेव के साथ अनबन का फायदा शेरशाह ने उठाया,चूँकि मालदेव की हुमायूँ को शरण देने की कोशिश ने शेरशाह को क्रोधित कर दिया था जिसके चलते शेरशाह ने अपनी सेना मालदेव की महत्त्वाकांक्षा के मारे राव विरमदेव व बीकानेर के कल्याणमल के साथ भेजकर जोधपुर पर चढाई कर दी |
मालदेव भी अपनी सेना सहित सामना करने हेतु आ डटे लेकिन युद्ध की शुरुआत से पहले ही विरमदेव की वजह से अपने सामंतों की स्वामिभक्ति से आशंकित हो मालदेव युद्ध क्षेत्र से खिसक लिए | इस सुमैलगिरी युद्ध के नाम से प्रसिद्ध युद्ध में शेरशाह की फौज से मालदेव के सेनापति जैता और कुंपा ने भयंकर युद्ध कर भारी नुकसान पहुँचाया, विजय के बाद अपनी सेना के भारी नुकसान को देखकर शेरशाह ने कहा " मुट्ठी भर बाजरे की खातिर मै दिल्ली की सल्तनत खो बैठता | " इस युद्ध विजय के बाद शेरशाह ने विरमदेव व कल्याणमल के साथ सेना भेजकर जोधपुर पर अधिकार करने के बाद मेड़ता पर विरमदेव का पुनः अधिकार कराया | इस प्रकार छह वर्ष तक कष्ट सहन करने के बाद विरमदेव मेड़ता पर अधिकार करने में कामयाब हुए लेकिन इसके बाद वे ज्यादा दिन जीवित नहीं रह सके और फरवरी 1544 में 66 वर्ष की अवस्था में उनका स्वर्गवास हो गया



शेखावाटी का अंग्रेज विरोधी आक्रोश

Ratan Singh Shekhawat,
मराठो और पिंडरियों की लुट खसोट से तंग आकर सन १८१८ में राजस्थान के महाराजों ने अंग्रेजों के साथ संधियाँ कर ली थी जिससे इन संधियों के माध्यम से राजस्थान में अंग्रेजों के प्रवेश के साथ ही उनकी आंतरिक दखलंदाजी भी शुरू हो गई जो हमेशा स्वंतत्र रहने के आदि शेखावाटी के कतिपय शेखावत शासकों व जागीरदारों को पसंद नहीं आई |और उन्होंने अपनी अपनी क्षमतानुसार अंग्रेजों का विरोध शुरू कर दिया | इनमे श्याम सिंह बिसाऊ व ज्ञान सिंह मंडावा ने वि.स.१८६८ में अंग्रेजो के खिलाफ रणजीत सिंह (पंजाब) की सहायतार्थ अपनी सेनाये भेजी | बहल पर अंग्रेज शासन होने के बाद कान सिंह, ददरेवा के सूरजमल राठौड़ और श्याम सिंह बिसाऊ ने अंग्रेजो पर हमले कर संघर्ष जारी रखा | शेखावाटी के छोटे सामंत जिन्हें राजस्थान में अंग्रेजो का प्रवेश रास नहीं आ रहा था ने अपने आस पड़ोस अंग्रेज समर्थकों में लुट-पाट व हमले कर आतंकित कर दिया जिन्हें अंग्रेजो ने लुटेरे कह दबाने कर लिए मेजर फोरेस्टर के नेतृत्व में शेखावाटी ब्रिगेड की स्थापना की | इस ब्रिगेड ने शेखावाटी के कई सामंत क्रांतिकारियों के किले तोड़ दिए इससे पहले अंग्रेजो ने जयपुर महाराजा को इन शेखावाटी के सामन्तो की शिकायत कर उन्हें समझाने का आग्रह किया किन्तु ये सामंत जयपुर महाराजा के वश में भी नहीं थे | किले तोड़ने के बाद गुडा के क्रांतिकारी दुल्हे सिंह शेखावत का सिर काट कर मेजर फोरेस्टर ने क्रांतिकारियों को भयभीत करने लिए झुंझुनू में लटका दिया जिसे एक मीणा समुदाय का साहसी क्रांतिकारी रात्रि के समय उतार लाया | मेजर फोरेस्टर शेखावाटी के भोडकी गढ़ को तोड़ने भी सेना सहित पहुंचा लेकिन वहां मुकाबले के लिए राजपूत नारियों को हाथों में नंगी तलवारे लिए देख लौट आया |
शेखावाटी ही नहीं पुरे राजस्थान में अंग्रेजो के खिलाफ क्रांति का बीज बोने वालों में अग्रणी डुंगजी जवाहरजी (डूंगर सिंह शेखावत और जवाहर सिंह शेखावत) ने एक सशत्र क्रांति दल बनाया जिसमे सावंता मीणा व लोटिया जाट उनके प्रमुख सहयोगी थे | इस दल ने शेखावाटी ब्रिगेड पर हमला कर ऊंट,घोडे और हथियार लुट लिए साथ ही रामगढ शेखावाटी के अंग्रेज समर्थक सेठो को क्रांति के लिए धन नहीं देने की वजह से लुट लिया | शेखावाटी ब्रिगेड पर हमला और सेठो की शिकायत पर २४ फरवरी १८४६ को ससुराल में उनके साले द्वारा ही धोखे से डूंगर सिंह को अंग्रेजो ने पकड़ लिया और आगरा किले की कैद में डाल दिया | उन्हें छुडाने के लिए १ जून १८४७ को शेखावाटी के एक क्रांति दल जिसमे कुछ बीकानेर राज्य के भी कुछ क्रांतिकारी राजपूत शामिल थे ने आगरा किले में घुस कर डूंगर सिंह को जेल से छुडा लिया | इस घटना मे बख्तावर सिंह श्यामगढ,ऊजिण सिंह मींगणा,हणुवन्त सिंह मेह्डु आदि क्रान्तिकारी काम आये | इनके अलावा इस दल मे ठा,खुमाण सिंह लोढ्सर,ठा,कान सिंह मलसीसर,ठा,जोर सिह,रघुनाथ सिह भिमसर,हरि सिह बडा खारिया,लोटिया जाट,सांव्ता मीणा आदि सैकड़ौ लोग शामिल थे | डूंगर सिह को छुड़ाने के बाद इस दल ने अंग्रेजो को शिकायत करने वाले सेठो को फ़िर लुटा और शेखावाटी ब्रिगेड पर हमले तेज कर दिये | 18 जून 1848 को इस दल ने अजमेर के पास नसिराबाद स्थित अंग्रेज सेना की छावनी पर आक्र्मण कर शस्त्रो के साथ खजाना भी लूट लिया | लोक गीतो के अनुसार ये सारा धन यह दल गरीबो मे बांटता आगे बढता रहा | आखिर इस क्रान्ति दल के पिछे अंग्रेजो के साथ जयपुर,जोधपुर,बीकानेर राज्यो की सेनाए लग गई | और कई खुनी झड़पो के बाद 17 मार्च 1848 को डूंगर सिह और जवाहर सिह के पकड़े जाने के बाद यह सघंर्ष खत्म हो गया | 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम मे भी मंडावा के ठाकुर आनन्द सिह ने अपनी सेना अंग्रेजो के खिलाफ़ आलणियावास भेजी थी | तांत्या टोपे को भी सीकर आने का निमंत्रण भी आनन्द सिह जी ने ही दिया था | 1903 मे लार्ड कर्जन द्वारा आयोजित दिल्ली दरबार मे सभी राजाओ के साथ हिन्दू कुल सूर्य मेवाड़ के महाराणा का जाना भी इन क्रान्तिकारियो को अच्छा नही लग रहा था इसलिय उन्हे रोकने के लिये शेखावाटी के मलसीसर के ठाकुर भूर सिह ने ठाकुर करण सिह जोबनेर व राव गोपाल सिह खरवा के साथ मिल कर महाराणा फ़तह सिह को दिल्ली जाने से रोकने की जिम्मेदारी केशरी सिह बारहट को दी | केसरी सिह बारहट ने "चेतावनी रा चुंग्ट्या " नामक सौरठे रचे जिन्हे पढकर महाराणा अत्यधिक प्रभावित हुये और दिल्ली दरबार मे न जाने का निश्चय किया | गांधी जी की दांडी यात्रा मे भी शेखावाटी के आजादी के दीवाने सुल्तान सिह शेखावत खिरोड ने भाग लिया था | इस तरह राजस्थान मे अंग्रेजी हकूमत के खिलाफ़ लड़ने और विरोधी वातावरण तैयार करने मे शेखावाटी के सामन्तो व जागीरदारो ने भी अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई | हालांकि शेखावाटी पर सीधे तौर पर अंग्रेजो का शासन कभी नही रहा |

history of shekhawat

महाराव शेखा जी ,परिचय एवं व्यव्क्तित्व

Pawan Singh Shekhawat,

राव शेखा का जन्म आसोज सुदी विजयादशमी सं १४९० वि. में बरवाडा व नाण के स्वामी मोकल सिंहजी कछवाहा की रानी निरबाण जी के गर्भ से हुआ १२ वर्ष की छोटी आयु में इनके पिता का स्वर्गवास होने के उपरांत राव शेखा वि. सं. १५०२ में बरवाडा व नाण के २४ गावों की जागीर के उतराधिकारी हुए |

आमेर नरेश इनके पाटवी राजा थे राव शेखा अपनी युवावस्था में ही आस पास के पड़ोसी राज्यों पर आक्रमण कर अपनी सीमा विस्तार करने में लग गए और अपने पैत्रिक राज्य आमेर के बराबर ३६० गावों पर अधिकार कर एक नए स्वतंत्र कछवाह राज्य की स्थापना की |

अपनी स्वतंत्रता के लिए राव शेखा जी को आमेर नरेश रजा चंद्रसेन जी से जो शेखा जी से अधिक शक्तिशाली थे छः लड़ाईयां लड़नी पड़ी और अंत में विजय शेखाजी की ही हुई,अन्तिम लड़ाई मै समझोता कर आमेर नरेश चंद्रसेन ने राव शेखा को स्वतंत्र शासक मान ही लिया | राव शेखा ने अमरसर नगर बसाया , शिखरगढ़ , नाण का किला,अमरगढ़,जगन्नाथ जी का मन्दिर आदि का निर्माण कराया जो आज भी उस वीर पुरूष की याद दिलाते है |

राव शेखा जहाँ वीर,साहसी व पराक्रमी थे वहीं वे धार्मिक सहिष्णुता के पुजारी थे उन्होंने १२०० पन्नी पठानों को आजीविका के लिए जागिरें व अपनी सेना मै भरती करके हिन्दूस्थान में सर्वप्रथम धर्मनिरपेक्षता का परिचय दिया | उनके राज्य में सूअर का शिकार व खाने पर पाबंदी थी तो वहीं पठानों के लिए गाय,मोर आदि मारने व खाने के लिए पाबन्दी थी |

राव शेखा दुष्टों व उदंडों के तो काल थे एक स्त्री की मान रक्षा के लिए अपने निकट सम्बन्धी गौड़ वाटी के गौड़ क्षत्रियों से उन्होंने ग्यारह लड़ाइयाँ लड़ी और पांच वर्ष के खुनी संघर्ष के बाद युद्ध भूमि में विजय के साथ ही एक वीर क्षत्रिय की भांति प्राण त्याग दिए |

राव शेखा की मृत्यु रलावता गाँव के दक्षिण में कुछ दूर पहाडी की तलहटी में अक्षय तृतीया वि.स.१५४५ में हुई जहाँ उनके स्मारक के रूप में एक छतरी बनी हुई है | जो आज भी उस महान वीर की गौरव गाथा स्मरण कराती है | राव शेखा अपने समय के प्रसिद्ध वीर.साहसी योद्धा व कुशल राजनिग्य शासक थे,युवा होने के पश्चात उनका सारा जीवन लड़ाइयाँ लड़ने में बीता |

और अंत भी युद्ध के मैदान में ही एक सच्चे वीर की भांति हुआ,अपने वंशजों के लिए विरासत में वे एक शक्तिशाली राजपूत-पठान सेना व विस्तृत स्वतंत्र राज्य छोड़ गए जिससे प्रेरणा व शक्ति ग्रहण करके उनके वीर वंशजों ने नए राज्यों की स्थापना की विजय परम्परा को अठारवीं शताब्दी तक जारी रखा,राव शेख ने अपना राज्य हांसी दादरी,भिवानी तक बढ़ा दिया था | उनके नाम पर उनके वंशज शेखावत कहलाने लगे और शेखावातो द्वारा शासित भू-भाग शेखावाटी के नाम से प्रसिद्ध हुआ,इस प्रकार सूर्यवंशी कछवाहा क्षत्रियों में एक नई शाखा "शेखावत वंश"का आविर्भाव हुआ | राव शेखा जी की मृत्यु के बाद उनके सबसे छोटे पुत्र राव रायमल जी अमरसर की राजगद्दी पर बैठे जो पिता की भाँती ही वीर योद्धा व निपूण शासक थे


रावशेखा के दादा बालाजी आमेर से अलग हुए थे | अतः अधीनता स्वरूप कर के रूप में प्रतिवर्ष आमेर को बछेरे देते थे | शेखा के समय तक यह परम्परा चल रही थी | राव शेखा ने गुलामी की श्रंखला को तोड़ना चाहा | अतः उन्होंने आमेर राजा उद्धरण जी को बछेरे देने बंद कर दिए थे पर चंद्रसेन वि.सं.१५२५ मै जब आमेर के शासक हुए तब राव शेखा के पास संदेश भेजा कि वे आमेर को कर के रूप में बछेरे क्यों नही भेजते है ? शेखा ने कहा कि मै अधीनता के प्रतीक चिन्ह को समाप्त कर देना चाहता हूँ और इसी कारण मेने बछेरे भेजने बंद कर दिए | केसरी समर में इसका सूचक दोहा इस प्रकार है –
"किये प्रधानन अरज यक , सुनहु भूप बनराज |
एक अमरसर राव बिन , सकल समापे बाज ||"
इस समाचार को जानकर चंद्र सेन को बड़ा क्रोध आया और उन्होंने राव शेखा पर चढाई करने की आज्ञा दी | इसी समय पन्नी पठानों का एक काफिला जिसमे ५०० पन्नी पठान थे |गुजरात से मुलतान जाते समय अमरसर रुका | राव शेखा ने इन पन्नी पठानों को अपना मित्र बना लिया , उनके साथ एक विशेष समझौता किया और अपनी सेना मै रखकर अपनी शक्ति बढाई | चंद्रसेन की सेना को पराजित किया और आमेर के कई घोड़ो को छीन कर ले आए |
अब चंद्र सेन स्वयं सेना लेकर आगे बढे और राव शेखा पर आक्रमण किया | नाण के पास राव शेखा ने चंद्रसेन का मुकाबला किया |राव शेखा ने अपनी सेना के तीन विभाग किए और मोर्चाबद्ध युद्ध शुरू किया | शेखा स्वयं एक विभाग के साथ रहकर कमान संभाले हुए थे | स्वयं ने चंद्रसेन से युद्ध किया | शेखा की तलवार के सम्मुख चंद्रसेन टिक भी न सके भाग खड़े हुए और आमेर चले गए | इस युद्ध में दोनों और से ६०० घुड़सवार ६०० पैदल खेत रहे |
अनुमानतः वि.सं.१५२६ में आमेर के चंद्रसेन पुनः शेखा को पराजित करने एक बड़ी सेना के साथ बरवाडा नाके पर स्तिथ धोली गाँव के पास पहुँच गए | इधर शेखाजी अपनी सशक्त सेना के साथ युद्ध करने पहुँच गए |राव शेखा ने पहुंचते ही फुर्ती के साथ चंद्रसेन की सेना पर अकस्मात आक्रमण किया | काफ़ी संघर्ष के बाद चन्द्रसेन की सेना भाग खड़ी हुई और रावशेखा की विजय हुई | यहाँ से शेखा आगे बढे ओए कुकस नदी के क्षेत्र पर अधिकार लिया |
वि.सं.१५२८ में चंद्रसेन ने राव शेखा को अधीन करने का फ़िर प्रयास किया और कुकस नदी के दक्षिण तट पर अपनी सेना को शेखा से युद्ध करने को तैनात किया |राव शेखा जी अपनी सेना सहित आ डेट | चंद्रसेन ने इस युद्ध को जीतने के लिए समस्त कछवाहों को निमंत्रित किया ऐसा माना जाता है |नारुजी पहले आमेर के पक्ष में थे परन्तु युद्ध शुरू होते ही राव शेखा के पक्ष में आ गए | यह जानकर चंद्रसेन बहुत चिंतित हुए और अपनी हार स्वीकार करते हुए संधि का प्रस्ताव रखा | नारुजी की मध्यस्ता में संधि हुई , वह इस प्रकार थी |

१.आज तक जिन ग्रामों पर राव शेखाजी का अधिकार हुआ हैं ,उन पर राव शेखा जी का अधिकार रहेगा |
२.आज से राव शेखा जी आमेर की भूमि पर आक्रमण नही करेंगे | वे आमेर राज्य को किसी प्रकार का कर नही देंगे |
३.शेखा जी अपना स्वतंत्र राज्य कायम रखेंगे | उसमे आमेराधीश कोई हस्तक्षेप नही करेगा |

इस संधि को दोनों पक्षों ने स्वीकार किया | सम्भवतः इसी समय बरवाडा पर चंद्रसेन का अधिकार हो गया | इस समय से राव शेखा जी का ३६० गांवों पर अधिकार हो चुका था


एक स्त्री की मान रक्षा के लिए शेखाजी ने झुन्थर के कोलराज गौड़ का सर काट कर अपने अमरसर के गढ़ के सदर द्वार पर टंगवा दिया,ऐसा करने का उनका उद्देश्य उदंड व आततायी लोगों में भय पैदा करना था हालांकि यह कृत्य वीर धर्म के खिलाफ था शेखा जी के उक्त कार्य की गौड़ा वाटी में जबरदस्त प्रतिक्रिया हुई और गौड़ राजपूतों ने इसे अपना जातीय अपमान समझा,अनेक गौड़ योद्धाओ ने अपने सरदार का कटा सर लाने का साहसिक प्रयत्न किया लेकिन वे सफल नही हुए और गौंडो व शेखाजी के बीच इसी बात पर ५ साल तक खूनी संघर्ष चलता रहा आख़िर जातीय अपमान से क्षुब्ध गौड़ राजपूतों ने अपनी समस्त शक्ति इक्कट्ठी कर घाटवा नामक स्थान पर युद्ध के लिए राव शेखा जी को सीधे शब्दों में रण निमंत्रण भेजा
गौड़ बुलावे घाटवे,चढ़ आवो शेखा |
लस्कर थारा मारणा,देखण का अभलेखा ||
रण निमंत्रण पाकर शेखा जी जेसा वीर चुप केसे रह सकता था और बिखरी सेना को एकत्रित करने की प्रतीक्षा किए बिना ही शेखा जी अपनी थोडी सी सेना के साथ घाटवा पर चढाई के लिए चल दिए और जीणमाता के ओरण में अपने युद्ध सञ्चालन का केन्द्र बना घाटवा की और बढे ,घाटवा सेव कुछ दूर खुटिया तालाब (खोरंडी के पास )शेखा जी का गौडों से सामना हुवा ,मारोठ के राव रिडमल जी ने गौडों का नेत्रत्व करते हुए शेखा जी पर तीरों की वर्षा कर भयंकर युद्ध किया उनके तीन घटक तीर राव शेखा जी के लगे व शेखा जी के हाथों उनका घोड़ा मारा गया ,इस युद्ध में शेखा जी के ज्येष्ठ पुत्र दुर्गा जी कोलराज के पुत्र मूलराज गौड़ के हाथों मारे गए और इसके तुंरत बाद मूलराज शेखा जी के एक ही प्रहार से मारा गया | घोड़ा बदल कर रिडमल जी पुनः राव शेखा जी के समक्ष युद्ध के लिए खड़े हो गए ,गौड़ वीरों में जोश की कोई कमी नही थी लेकिन उनके नामी सरदारों व वीरों के मारे जाने से सूर्यास्त से पहले ही उनके पैर उखड़ गए और वे घाटवा के तरफ भागे जो उनकी रणनीति का हिस्सा था वे घाटवा में मोर्चा बाँध कर लड़ना चाहते थे ,लेकिन उनसे पहले शेखा जी पुत्र पूरण जी कुछ सैनिकों के साथ घाटवा पर कब्जा कर चुके थे |
खुटिया तालाब के युद्ध से भाग कर घाटवा में मोर्चा लेने वाले गौडों ने जब घाटवा के पास पहुँच कर घाटवा से धुंवा उठता देखा तो उनके हौसले पस्त हो गए और वे घाटवा के दक्षिण में स्थित पहाडों में भाग कर छिप गए शेखा जी के पुत्र पूरण जी घाटवा में हुए युद्ध के दौरान अधिक घायल होने के कारण वीर गति को प्राप्त हो गए | घायल शेखा जी ने शत्रु से घिरे पहाडों के बीच रात्रि विश्राम लेना बुधिसम्मत नही समझ अपने जीणमाता के ओरण में स्तिथ सैनिक शिविर में लोट आए इसी समय उनके छोटे पुत्र रायमल जी भी नए सेन्यबल के साथ जीणमाता स्थित सेन्य शिविर में पहुँच चुके थे ,गौड़ शेखा जी की थकी सेना पर रात्रि आक्रमण के बारे में सोच रहे थे लेकिन नए सेन्य बल के साथ रायमल जी पहुँचने की खबर के बाद वे हमला करने का साहस नही जुटा सके |
युद्ध में लगे घावों से घायल शेखा जी को अपनी मर्त्यु का आभास हो चुका था सो अपने छोटे पुत्र रायमल जी को अपनी ढाल व तलवार सोंप कर उन्होंने अपने उपस्थित राजपूत व पठान सरदारों के सामने रायमल जी को अपना उतराधिकारी घोषित कर अपनी कमर खोली ,और उसी क्षण घावों से क्षत विक्षत उस सिंह पुरूष ने नर देह त्याग वीरों के धाम स्वर्गलोक को प्रयाण किया ,जीणमाता के पास रलावता गावं से दक्षिण में आधा मील दूर उनका दाह संस्कार किया गया जहाँ उनके स्मारक के रूप में खड़ी छतरी उनकी गर्वीली कहानी की याद दिलाती है |
घाटवा का युद्ध सं.१५४५ बैशाख शुक्ला त्रतीय के दिन लड़ा गया था और उसी दिन विजय के बाद शेखा जी वीर गति को प्राप्त हुए | शेखा जी की म्रत्यु का संयुक्त कछवाह शक्ति द्वारा बदला लेने के डर से मारोठ के राव रिडमल जी गोड़ ने रायमल जी के साथ अपनी पुत्री का विवाह कर और 51 गावं झुन्थर सहित रायमल जी को देकर पिछले पॉँच साल से हो रहे खुनी संघर्ष को रिश्तेदारी में बदल कर विवाद समाप्त किया |


शेखावत

Pawan Singh Shekhawat,
शेखावत सूर्यवंशी कछवाह क्षत्रिय वंश की एक शाखा है देशी राज्यों के भारतीय संघ में विलय से पूर्व मनोहरपुर,शाहपुरा, खंडेला,सीकर, खेतडी,बिसाऊ,सुरजगढ़,नवलगढ़, मंडावा,मुकन्दगढ़, दांता,खुड,खाचरियाबास,दूंद्लोद,अलसीसर,मलसिसर,रानोली आदि प्रभाव शाली ठिकाने शेखावतों के अधिकार में थे जो शेखावाटी नाम से प्रशिध है वर्तमान में शेखावाटी की भौगोलिक सीमाएं सीकर और झुंझुनू दो जिलों तक ही सीमित है भगवान राम के पुत्र कुश के वंशज कछवाह कहलाये महाराजा कुश के वंशजों की एक शाखा अयोध्या से चल कर साकेत आयी, साकेत से रोहतास गढ़ और रोहताश से मध्य प्रदेश के उतरी भाग में निषद देश की राजधानी पदमावती आये रोहतास गढ़ का एक राजकुमार तोरनमार मध्य प्रदेश आकर वाहन के राजा गौपाल का सेनापति बना और उसने नागवंशी राजा देवनाग को पराजित कर राज्य पर अधिकार कर लिया और सिहोनियाँ को अपनी राजधानी बनाया कछवाहों के इसी वंश में सुरजपाल नाम का एक राजा हुवा जिसने ग्वालपाल नामक एक महात्मा के आदेश पर उन्ही नाम पर गोपाचल पर्वत पर ग्वालियर दुर्ग की नीवं डाली महात्मा ने राजा को वरदान दिया था कि जब तक तेरे वंशज अपने नाम के आगे पाल शब्द लगाते रहेंगे यहाँ से उनका राज्य नष्ट नहीं होगा सुरजपाल से 84 पीढ़ी बाद राजा नल हुवा जिसने नलपुर नामक नगर बसाया और नरवर के प्रशिध दुर्ग का निर्माण कराया नरवर में नल का पुत्र ढोला (सल्ह्कुमार) हुवा जो राजस्थान में प्रचलित ढोला मारू के प्रेमाख्यान का प्रशिध नायक है उसका विवाह पुन्गल कि राजकुमारी मार्वणी के साथ हुवा था, ढोला के पुत्र लक्ष्मण हुवा, लक्ष्मण का पुत्र भानु और भानु के परमप्रतापी महाराजाधिराज बज्र्दामा हुवा जिसने खोई हुई कछवाह राज्यलक्ष्मी का पुनः उद्धारकर ग्वालियर दुर्ग प्रतिहारों से पुनः जित लिया बज्र्दामा के पुत्र मंगल राज हुवा जिसने पंजाब के मैदान में महमूद गजनवी के विरुद्ध उतरी भारत के राजाओं के संघ के साथ युद्ध कर अपनी वीरता प्रदर्शित की थी मंगल राज दो पुत्र किर्तिराज व सुमित्र हुए,किर्तिराज को ग्वालियर व सुमित्र को नरवर का राज्य मिला सुमित्र से कुछ पीढ़ी बाद सोढ्देव का पुत्र दुल्हेराय हुवा जिनका विवाह dhundhad के मौरां के चौहान राजा की पुत्री से हुवा था
दौसा पर अधिकार करने के बाद दुल्हेराय ने मांची,bhandarej खोह और झोट्वाडा पर विजय पाकर सर्वप्रथम इस प्रदेश में कछवाह राज्य की नीवं डाली मांची में इन्होने अपनी कुलदेवी जमवाय माता का मंदिर बनवाया वि.सं. 1093 में दुल्हेराय का देहांत हुवा दुल्हेराय के पुत्र काकिलदेव पिता के उतराधिकारी हुए जिन्होंने आमेर के सुसावत जाति के मीणों का पराभव कर आमेर जीत लिया और अपनी राजधानी मांची से आमेर ले आये काकिलदेव के बाद हणुदेव व जान्हड़देव आमेर के राजा बने जान्हड़देव के पुत्र पजवनराय हुए जो महँ योधा व सम्राट प्रथ्वीराज के सम्बन्धी व सेनापति थे संयोगिता हरण के समय प्रथ्विराज का पीछा करती कन्नोज की विशाल सेना को रोकते हुए पज्वन राय जी ने वीर गति प्राप्त की थी आमेर नरेश पज्वन राय जी के बाद लगभग दो सो वर्षों बाद उनके वंशजों में वि.सं. 1423 में राजा उदयकरण आमेर के राजा बने,राजा उदयकरण के पुत्रो से कछवाहों की शेखावत, नरुका व राजावत नामक शाखाओं का निकास हुवा उदयकरण जी के तीसरे पुत्र बालाजी जिन्हें बरवाडा की 12 गावों की जागीर मिली शेखावतों के आदि पुरुष थे बालाजी के पुत्र मोकलजी हुए और मोकलजी के पुत्र महान योधा शेखावाटी व शेखावत वंश के प्रवर्तक महाराव शेखाजी का जनम वि.सं. 1490 में हुवा वि. सं. 1502 में मोकलजी के निधन के बाद राव शेखाजी बरवाडा व नान के 24 गावों के स्वामी बने राव शेखाजी ने अपने साहस वीरता व सेनिक संगठन से अपने आस पास के गावों पर धावे मारकर अपने छोटे से राज्य को 360 गावों के राज्य में बदल दिया राव शेखाजी ने नान के पास अमरसर बसा कर उसे अपनी राजधानी बनाया और शिखर गढ़ का निर्माण किया राव शेखाजी के वंशज उनके नाम पर शेखावत कहलाये जिनमे अनेकानेक वीर योधा,कला प्रेमी व स्वतंत्रता सेनानी हुए शेखावत वंश जहाँ राजा रायसल जी,राव शिव सिंह जी, शार्दुल सिंह जी, भोजराज जी,सुजान सिंह आदि वीरों ने स्वतंत्र शेखावत राज्यों की स्थापना की वहीं बठोथ, पटोदा के ठाकुर डूंगर सिंह, जवाहर सिंह शेखावत ने भारतीय स्वतंत्रता के लिए अंग्रेजों के खिलाफ सशस्त्र संघर्ष चालू कर शेखावाटी में आजादी की लड़ाई का बिगुल बजा दिया था शेखावत वंश के ही श्री भैरों सिंह जी भारत के उप राष्ट्रपति बने


राजा रायसल दरबारी, खंडेला

Ratan Singh Shekhawat, Jul 14, 2008



रायसल अमरसर के शासक राव सुजाजी के द्वितीय पुत्र थे | उनका जन्म राठोड रानी रतन कुंवरी के गर्भ से हुआ था |
वर्त्तमान शेखावाटी में शेखावत राज्य की नीव इन्ही रायसलजी अपनी लाम्या की छोटी सी गागरी को खंडेला व रेवासा के विस्तृत राज्य में बदल कर डाली थी | पिता की मोत के बाद बटवारे में इन्हें जागीर में एक लाम्या गावं तथा २५ अश्व मिले लेकिन अपने बुद्धिमान मंत्री देविदास, जिनकी राजनीति प्रसिद्ध है | के सहयोग व प्रदर्शन से ये खंडेला व रेवासा के शासक बने | वी. स. १६२९ में गुजरात की चढाई के समय व इब्राहीम मिर्जा से सर्नाल के युद्ध में आगे बढ़कर बादशाह अकबर की प्राण रक्षा कर विश्वास योग्य बन गए |
नागोर, जुनागड़,पाटन,भटनेर आदि स्थानों पर इन्होने विजय हासिल की | बाद्साही महल का प्रबंद उनकी सम्मति से चलाया जाता था | आपने पूर्वजों के राज्य अमरसर के बराबर एक दुसरे राज्य के मुक्त शासक अपनी योग्यता, वीरता व देविदास मंत्री के उचित मार्ग दर्शन से बन बेठे | खेराबाद व पाटन के युधों में छायाँ के भांति अकबर का साथ देकर उन्होने अपनी वीरता व शोर्य प्रदर्शित किया | रायसल ने अपनी जीवन काल में ५२ यूधों में विजय हासिल की |
शहजादा सलीम को बादशाह बनाए वाले उमरओंमें में रायसल प्रमुख थे | जहाँगीर के राज्य काल तक वे तीन हजारी मंसबदारो की उच्च श्रेणी में पहुँच गए | रायसल अपने जीवन काल के अन्तिम दिनों में दक्षिण में शाही सेवा में नियत रहे व वहीं व्रधावस्था में उनका स्वर्गवास हो गया |राजा रायसल जैसे वीर योधा व साहसी थे ,वैसे ही दानी भी थे | भूमि दान देने में तो उस समय रायासला जी अद्वितीय थे,
रायसल जी के १२ पुत्रों में से खंडेला की राजगद्दी पर उनके सबसे कनिस्ट पुत्र गिरधर जी, रायसलजी की अन्तिम इच्छा अनुसार बेठे | इनके वंशजों में द्वारकादास, शार्दुल सिंह जी ,शिव सिंहजी ,राव तिरमलजी आदि वीर शासक हुए

Tuesday, September 7, 2010

शेखावत वंश की शाखाएँ

शेखावत वंश की शाखाएँ -1




pawan singh shekhawat

* टकनॆत शॆखावत‍‍‍‍- शेखा जी के ज्येष्ठ पुत्र दुर्गा जी के वंशज टकनॆत शॆखावत‍‍‍‍ कहलाये !खोह,पिपराली,गुंगारा आदि इनके ठिकाने थे जिनके लिए यह दोहा प्रशिध है

खोह खंडेला सास्सी गुन्गारो ग्वालेर !

अलखा जी के राज में पिपराली आमेर !!

टकनॆत शॆखावत‍‍‍‍ शेखावटी में त्यावली,तिहाया,ठेडी,मकरवासी,बारवा ,खंदेलसर,बाजोर व चुरू जिले में जसरासर,पोटी,इन्द्रपुरा,खारिया,बड्वासी,बिपर आदि गावों में निवास करते है !



* रतनावत शेखावत -महाराव शेखाजी के दुसरे पुत्र रतना जी के वंशज रतनावत शेखावत कहलाये इनका स्वामित्व बैराठ के पास प्रागपुर व पावठा पर था !हरियाणा के सतनाली के पास का इलाका रतनावातों का चालीसा कहा जाता है

*मिलकपुरिया शेखावत -शेखा जी के पुत्र आभाजी,पुरन्जी,अचलजी के वंशज ग्राम मिलकपुर में रहने के कारण मिलकपुरिया शेखावत कहलाये इनके गावं बाढा की ढाणी, पलथाना ,सिश्याँ,देव गावं,दोरादास,कोलिडा,नारी,व श्री गंगानगर के पास मेघसर है !



* खेज्डोलिया शेखावत -शेखा जी के पुत्र रिदमल जी वंशज खेजडोली गावं में बसने के कारण खेज्डोलिया शेखावत कहलाये !आलसर,भोजासर छोटा,भूमा छोटा,बेरी,पबाना,किरडोली,बिरमी,रोलसाहब्सर,गोविन्दपुरा,रोरू बड़ी,जोख,धोद,रोयल आदि इनके गावं है !

*बाघावत शेखावत - शेखाजी के पुत्र भारमल जी के बड़े पुत्र बाघा जी वंशज बाघावत शेखावत कहलाते है ! इनके गावं जेई पहाड़ी,ढाकास,सेनसर,गरडवा,बिजोली,राजपर,प्रिथिसर,खंडवा,रोल आदि है
*सातलपोता शेखावत -शेखाजी के पुत्र कुम्भाजी के वंशज सातलपोता शेखावत कहलाते है !

*रायमलोत शेखावत -शेखाजी के सबसे छोटे पुत्र रायमल जी के वंशज रायमलोत शेखावत कहलाते है
इनकी भी कई शाखाएं व प्रशाखाएँ है जो इस प्रकार है !
-तेजसी के शेखावत -रायमल जी पुत्र तेज सिंह के वंशज तेजसी के शेखावत कहलाते है ये अलवर
जिले के नारायणपुर,गाड़ी मामुर और बान्सुर के परगने में के और गावौं में आबाद है !

-सहसमल्जी का शेखावत -- रायमल जी के पुत्र सहसमल जी के वंशज सहसमल जी का
शेखावत कहलाते है !इनकी जागीर में सांईवाड़ थी !
-जगमाल जी का शेखावत -जगमाल जी रायमलोत के वंशज जगमालजी का शेखावत कहलाते
है !इनकी १२ गावों की जागीर हमीरपुर थी जहाँ ये आबाद है
-सुजावत शेखावत -सूजा रायमलोत के पुत्र सुजावत शेखावत कहलाये !सुजाजी रायमल जी के
ज्यैष्ठ पुत्र थे जो अमरसर के राजा बने !
-लुनावत शेखावत :-लुन्करण जी सुजावत के वंशज लुन्करण जी का शेखावत कहलाते है इन्हें लुनावत शेखावत भी कहते है,इनकी भी कई शाखाएं है !
उग्रसेन जी का शेखावत ,अचल्दास का शेखावत,सावलदास जी का शेखावत,मनोहर दासोत शेखावत आदि !

-रायसलोत शेखावत :- लाम्याँ की छोटीसी जागीर जागीर से खंडेला व रेवासा का स्वतंत्र राज्य
स्थापित करने वाले राजा रायसल दरबारी के वंशज रायसलोत शेखावत कहलाये !राजा रायसल के १२
पुत्रों में से सात प्रशाखाओं का विकास हुवा जो इस प्रकार है !
A- लाड्खानी :- राजा रायसल जी के जेस्ठ पुत्र लाल सिंह जी के वंशज लाड्खानी कहलाते है
दान्तारामगढ़ के पास ये कई गावों में आबाद है यह क्षेत्र माधो मंडल के नाम से भी प्रशिध है
पूर्व उप राष्ट्रपति श्री भैरों सिंह जी इसी वंश से है !
B- रावजी का शेखावत :- राजा रायसल जी के पुत्र तिर्मल जी के वंशज रावजी का शेखावत कहलाते है !
इनका राज्य सीकर,फतेहपुर,लछमनगढ़ आदि पर था !
C- ताजखानी शेखावत :- राजा रायसल जी के पुत्र तेजसिंह के वंशज कहलाते है इनके गावं चावंङिया,
भोदेसर ,छाजुसर आदि है
D. परसरामजी का शेखावत :- राजा रायसल जी के पुत्र परसरामजी के वंशज परसरामजी का शेखावत कहलाते है !
E. हरिरामजी का शेखावत :- हरिरामजी रायसलोत के वंशज हरिरामजी का शेखावत कहलाये !

F. गिरधर जी का शेखावत :- राजा गिरधर दास राजा रायसलजी के बाद खंडेला के राजा बने
इनके वंशज गिरधर जी का शेखावत कहलाये ,जागीर समाप्ति से पहले खंडेला,रानोली,खूड,दांता आदि ठिकाने इनके आधीन थे !
G. भोजराज जी का शेखावत :- राजा रायसल के पुत्र और उदयपुरवाटी के स्वामी भोजराज के वंशज भोजराज जी का शेखावत कहलाते है ये भी दो उपशाखाओं के नाम से जाने जाते है,
१-शार्दुल सिंह का शेखावत ,२-सलेदी सिंह का शेखावत
*गोपाल जी का शेखावत - गोपालजी सुजावत के वंशज गोपालजी का शेखावत कहलाते है
* भेरू जी का शेखावत - भेरू जी सुजावत के वंशज भेरू जी का शेखावत कहलाते है
* चांदापोता शेखावत - चांदाजी सुजावत के वंशज के वंशज चांदापोता शेखावत कहलाये

maharana partap ko samrpit

अरे घास री रोटी ही , जद बन बिलावडो ले भाग्यो


नान्हो सो अमरियो चीख पड्यो,राणा रो सोयो दुख जाग्यो



अरे घास री रोटी ही…………





हुँ लड्यो घणो , हुँ सहयो घणो, मेवाडी मान बचावण न



हुँ पाछ नहि राखी रण म , बैरयां रो खून बहावण म



जद याद करुं हल्दीघाटी , नैणां म रक्त उतर आवै



सुख: दुख रो साथी चेतकडो , सुती सी हूंक जगा जावै



अरे घास री रोटी ही…………





पण आज बिलखतो देखुं हूं , जद राज कंवर न रोटी न



हुँ क्षात्र धरम न भूलूँ हूँ , भूलूँ हिन्दवाणी चोटी न



महलां म छप्पन भोग झका , मनवार बीना करता कोनी



सोना री थालयां ,नीलम रा बजोट बीना धरता कोनी



अरे घास री रोटी ही…………





ऐ हा झका धरता पगल्या , फूलां री कव्ठी सेजां पर



बै आज रूठ भुख़ा तिसयां , हिन्दवाण सुरज रा टाबर















आ सोच हुई दो टूट तडक , राणा री भीम बजर छाती



आँख़्यां म आंसु भर बोल्या , म लीख़स्युं अकबर न पाती



पण लिख़ूं कियां जद देखूँ हूं , आ रावल कुतो हियो लियां



चितौड ख़ड्यो ह मगरानँ म ,विकराल भूत सी लियां छियां



अरे घास री रोटी ही…………





म झुकूं कियां है आण मन , कुठ्ठ रा केसरिया बाना री



म भुजूं

छड़ते चेतक प्र तलवार उठाए , रखते थे भूतल पानी को !

राणा प्रताप सिर काट काट, करते थे सफल जवानी को !!



निर्बल बकारों से बाघ लड़े, भीड़ गाये सिंघ मर्ग च्छानो से !

घोड़े गिर पड़े, गिरे हाथी , पैदल बीच् ग्ये बिचानो से !!



हेय ऋंड गीरे, गुज मूँद गिरे, काट काट अवनी प्र शुंद गिरे !

लड़ते लड़ते अरी झुंड गिरे, भूू प्र हाय बिकल बिटूंद गिरे !!



The war of prestige (हल्दी - घाटी)



दूग दूग दूग रन के डंके, मारू के साथ भ्याद बाजे!

ताप ताप ताप घोड़े कूद पड़े, काट काट मतंग के राद बजे!



कल कल कर उठी मुग़ल सेना, किलकर उठी, लालकर उठी!

ऐसी मायाण विवार से निकली तुरंत, आही नागिन सी फुल्कर उठी!



फ़र फ़र फ़र फ़र फ़र फेहरा उठ, अकबर का अभिमान निशान!

बढ़ चला पटक लेकर अपार, मद मस्त द्वीरध पेर मस्तमान!!



कॉलहाल पेर कॉलहाल सुन, शस्त्रों की सुन झंकार प्रबल!

मेवाड़ केसरी गर्ज उठा, सुन कर आही की लालकार प्रबल!!



हैर एक्लिंग को माता नवा, लोहा लेने चल पड़ा वीर!

चेतक का चंचल वेग देख, तट महा महा लजित समीर!!



लड़ लड़ कर अखिल महिताम को, शॉड़िंत से भर देने वाली!

तलवार वीर की तड़प उठी, आही कंठ क़ातर देने वाली!!



राणा को भर आनंद, सूरज समान छम चमा उठा!

बन माहाकाल का माहाकाल, भीषन भला दम दमा उ